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तृतीय खण्ड ।
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भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने भावलिंग और द्रव्यलिंग दोनोंका संकेत किया है और साधुपद धारनेवालेके लिये तीन विशेषण बताए हैं । अर्थात् निर्ममत्त्व हो, जितेन्द्रिय और यथाजात रूपधारी हो ।
निर्ममत्त्व विशेषणसे यह झलकाया है कि उसका किसी प्रकारका ममत्त्व किसी भी परद्रव्यसे न रहना चाहिये । स्त्री, पुत्र, माता, पिता, मित्र, कुटुम्बी, पशु आदि चेतन पदार्थ; ग्राम, नगर, देश, राज्य, घर, वस्त्र, आभूषण, वर्तन, शरीर आदि अचेतन पदार्थ इन सर्वसे जिसका विलकुल ममत्व न रहा हो । न जिसका ममत्व आठ कर्मोंके बने हुए कार्मण शरीरसे हो, न तैजस वर्गणासे निर्मित तैजस शरीरसे हो, न उन रागद्वेषादि नैमित्तिक भावोंसे हो जो मोहनीय कर्मके उदय के निमित्तसे आत्माके अशुद्ध उपभोगमें झलकते हैं, न शुभोपभोग रूप दान पूजा, जप, तप आदिसे जिसका मोह हो - उसने ऐसा निश्चय कर लिया हो कि शुभभाव बन्धके कारण हैं इससे त्यागने योग्य हैं। वह ऐसा निर्मोही हो जावे कि अपने शुद्ध निर्विकार ज्ञान दर्शन सुख वीर्यादि गुणधारी आत्मस्वभाव के सिवाय किसी भी परद्रव्यको अपना नहीं जाने यहांतक कि अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु इन पांचों परमेष्टियोंसे और अन्य आत्माओंसे भी मोह नहीं रखे । स्याद्वाद नयका ज्ञाता होकर वह ज्ञानी साधु ऐसा समझे कि अपना शुद्ध अखंड आत्मद्रव्य अपने ही शुद्ध असंख्यात प्रदेशरूप क्षेत्र, अपने ही शुद्ध समयर के पर्याय तथा अपने ही शुद्ध गुण तथा गुणांश ऐसे स्वद्रव्य क्षेत्रकाल भावकी अपेक्षा मेरा अस्तित्त्व मेरे ही में है ।
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