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२२] श्रीप्रवचनसारेटीकी। जिस प्रकार खरूपका धारी होता है उसका उपदेश करते हैं
णाहं होमि परेसिं ण मे परे णस्थि मज्झगिह किंचि । इदि णिच्छिदो जिदिदो जादो जधजादयधरो ॥ ४ ॥ नाहं भवामि परेपां न मे परे नास्ति ममेह किंचित् । इति निश्चितो जितेन्द्रियः यातो यथाजातरूपधरः ॥ ४ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-( अहं ) मैं (परेसिं) दूसरोंका (ण होमि) नहीं हूं (ण मे परे) न दूसरे द्रव्य मेरे हैं। इस तरह (इह) इस लोकमें (किंचि) कोई भी पदार्थ (मज्झम् ) मेरा (गत्थि) नहीं है । (इदि णिच्छिदो) ऐसा निश्चय करता हुआ (जिदिंदो) जितेंद्रिय (जधजादरूवधरो) और जैसा मुनिका स्वरूप होना चाहिए' वैसा अर्थात् नग्न या निम्रन्थ रूप धारी (जादो) होजाता है। - विशेषार्थ-दीक्षा लेनेवाला साधु अपने मन वचन कायसे सर्व परिग्रहंसे ममता त्याग देता है। इसीलिये वहं मनमें ऐसा निश्चय कर लेता है कि मेरे अपने शुद्ध आत्माके' सिवाय और जितने पर द्रव्य हैं उनका सम्बन्धी मैं नहीं हूं और न पर' . द्रव्य मेरे कोई सम्बन्धी हैं । इस जगतमें मेरे सिवाय मेरा कोई भी परद्रव्य नहीं है तथा वह अपनी पांच इंद्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाले विकल्पनालोंसे रहित व अनन्त ज्ञान आदि गुण स्वरूप अपने परमात्म द्रव्यसे विपरीत इंद्रिय और नोइंद्रियको जीत लेनेसे जितेन्द्रिय होजाता है। और यथाजात रूपधारी होजाता है अर्थात् . व्यवहारनयसे नग्नपना यथाजातरूप है और निश्चयसे अपने आत्माका जो यथार्थ स्वरूप है वह यथाजात रूप है। साधु इन दोनोंको धारण करके निर्ग्रन्थ हो जाता है। .