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तृतीय खण्ड। [३६१ भाषाकारकी प्रशस्ति कुन्दकुन्द आचार्यकृत प्राकृत प्रवचनसार श्री जयसेन मुनीशकी संस्कृत वृत्ति उदार ॥१॥ ताकी हिन्दी भाष्य, कहुं-देख न देशमंझार भाष्य करण उद्यम किया, स्वपरकान चित धार ॥२॥ विक्रम संवत एक नौ, आठ एक शुकवार ।
आश्विन सुद पंचम परम, कर समाप्त सुखकार ॥ ३५ ॥ अवध लक्ष्मणापुर वसे, भारतमें गुलजार। अग्रवंश गोयल कुलहिँ, मंगलसैन उदार ॥४॥ ता सुत मक्खनलालनी गृहपति धनकणधार । नारायणदेई भई, गीलवती त्रियसार पुत्र चार ताके भए निज निज कर्म सम्हार । ज्येष्ठ अभी निज थानमें संतलाल गृहकार ॥६॥ तृतिय पुत्र मैं तुच्छ मति “सीतल' दास जिनेन्द्र । श्रावक व्रत निज शक्ति सम, पालत सुखका केन्द्र ॥ ७ ॥ इस वर्षाके कालमें, रहा इटावा आय । समय सफलके हेतु यह टीका लिखी बनाय ॥८॥ है प्राचीन नगर महा, पुरी इष्टिका नाम | पंथ इष्टिका कहत कोउ, लश्कर पंथ मुकाम ॥९॥ जमुना नदी सुहावनी, तट एक दुर्ग महान । नृप मुमेरपालहिं कियो, कहत लोक गुणवान ॥ १०॥ ध्वंश भृष्ट प्राचीन अति, उच्च विशाल सुहाय ।, महिमा या शुभ नगरकी, कहत बनाय बनाय ॥ ११ ॥