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तृतीय खण्ड ।
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हों, सर्व प्राणी मात्रमें समताभावके धारी हों, निज आत्माके - स्वभाव के चिन्तवन करनेवाले हों तथा गार्हस्थ्य सम्बन्धी व्यापारसे मुक्त हों वे ही श्रमण साधु होते हैं ।
विशेषण यह है कि वे कुल रूप तथा वयमें श्रेष्ठ
हों | जिसका भाव यह है कि उनका कुल निष्कलंक हो अर्थात् 1 जिस कुलमें कुत्सित आचरणसे लोक निंदा होरही हो उस कुलका धारी आचार्य न हो क्योंकि उसका प्रभाव अन्य साधुओंपर नहीं पड़ सक्ता है तथा रूप उनका परिग्रह रहित निर्ग्रन्थ, शांत व भव्य जीवों मनको आकर्षण करनेवाला हो और आयु ऐसी हो जिससे दर्शकों को यह प्रगट हो कि यह आचार्य बड़े अनुभवी हैं व बड़े • सावधान तथा गुणी और गंभीर हैं-अति अल्प आयु व वृद्ध आयु ब. उद्धतता महित युवा आयु आचार्य पदकी शोभाको नहीं देसक्ती है । वास्तव में आचार्यका कुल, रूप तथा अवस्था अन्य साधुओंके मनमें उनके शरीरके दर्शन मात्र से प्रभावको उत्पन्न करनेवाले हों ।
चौथा विशेषण यह है कि वे आचार्य अन्य आचार्य तथा साधुओं के द्वारा माननीय हों । अर्थात आचार्य ऐसे गुणी, तपस्वी, आत्मानुभवी तथा शांतखभावी हों कि सर्व ही अन्य आचार्य व साधु उनके गुणोंकी प्रशंसाकर्त्ता व स्तुतिकर्ता हों ।
ऐसे चार विशेषण सहित आचार्यके पास जाकर वैराग्यवान दीक्षा उत्सुक भव्यजीवको उचित है कि नमस्कार, पूजा व भक्तिके Tarh अन्त विनयसे हस्त जोड़ यह प्रार्थना करे. कि महाराज, मुझे वह जिनेश्वरी दीक्षा प्रदान कीजिये जिसके प्रतापसे अनेक तीर्थंकरादि महापुरुषोंने शिवसुन्दरीको बरा है व जिसपर आरूढ़
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