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१८) श्रीप्रवचनसारटोका । गुणोंसे विभूषित हों । व्यवहार चारित्रके गुणोंके साथ २' निज आत्मीक रत्नत्रयके मननरूपी मुख्यगुणसे विभूषित हों।
श्री वट्टकेर आचार्य प्रणीत श्री मूलाचार ग्रन्थमें आचार्यकी प्रशंसामें - इस प्रकार कहा है
पंचमहध्वयधारी पंचसु समिदीसु सजदा धोरा । पंचिदियविरदा पंचमगइ मग्गया समणी ॥ ८७१ ॥
भावार्थ-जो पांच महाव्रतोंके धारी हों, पांच समितियोंमें लीन हों, निष्कम्पभाव वाले.हों, पांचों इंद्रियोंके विजयी हों तथा पञ्चम-सिद्ध गतिके खोजी हों वे ही श्रमण होते हैं ।
अणुवद्धतवोकम्मा खवणवसगदा तवेण तणुअंगा। धोरा गुणगंभीरा अभग्गजोगाय दिढचरित्ताय ॥८२६॥
भावार्थ-जो निरन्तर तपके साधन करनेवाले हों, क्षमा गुणके धारी हों, तपसे शरीर जिनका कश होगया हो, धीर हों व गुणोंमें गंभीर हों, अखंड ध्यानी हों तथा बढ़ चान्त्रिके पालनेचाले हों।
वसुधम्मिवि विहरता पीडं ण करति कस्सा कयाई । जोवेसु दयायण्णा माया जह पुत्तभंडेसु RECR (अ० भा०)
भावार्थ-पृथ्वीमें विहार करते हुए जो कभी किसी प्राणीको कप्ट नहीं देते हों । तथा सर्व जीवोंकी रक्षामें ऐसे दयालु हैं जैसे माता अपने पुत्र पुत्रियोंकी रक्षामें दयालु होती है।
णिक्खित्तसत्थदंडा समणा सम सव्वपाणभूदेसु । 'अप्पट्ठ चितंता हर्बति अब्वावडा साहू ॥८०३॥ (म० भा०)
भावार्थ-जो शस्त्र व दंड आदि हिंसाके उपकरणोंसे रहित '