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तृतीय खण्ड।
३५३ उनके शिष्य अनेक गुणोंके धारी आचार्य श्री सोमसेन हुए। उनका शिष्य यह जयसेन तपस्वी हुआ। संदा धर्ममें रत प्रसिद्ध माल माधु नामके हुए हैं। उनका पुत्र साधु महीपतिहुआ है, उनसे यह चारुभट नामका पुत्र उपना है, जो सर्व ज्ञान प्राप्तकर सदा आचाकि चरणोंकी आराधना पूर्वक सेवा करता है, उस चारभट अर्थात जयसेनाचार्य ने जो अपने पिताकी भक्तिके विलोप करनेसे भयभीत था इस प्राभृत नाम अन्यकी टीका की है। श्रीमान त्रिभुवनचन्द्र गुरुलो नमस्कार करता हूं, नो आत्माके भावरूपी जलको बढ़ानेके लिय चंद्रमाके तुल्य हैं और कामदेव नामके प्रबल महापर्वतके संकडों टुकड़े करनेवाले हैं । मैं श्री त्रिभुवनचंद्रको नमस्कार करता
। जो जगतके सर्व मंसारी जीवकि निष्कारण बन्धु हैं और गुण रूपी रत्नोंक समुद्र है। फिर मैं महा संयमके पालने में श्रेट चंद्रमानुल्य श्री त्रिभुवनचन्द्रको नमस्कार करता हूं जिसके उदयसे जगतके प्राणियोंकि अन्तरंगका अन्धकार समृह नष्ट होजाता है।
॥ इनि प्रशस्ति ।
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