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३२०] श्रोप्रवचनसारटोका ।। लेकर पदार्थोंको बतानेवाले सूत्रके अर्थ और पदोंको अच्छी तरह निर्णय करके जान लिया है, अन्य जीवोंमें व पदार्थोंमें क्रोधादि कषायको त्याग करके भीतर परम शांतभावमें परिणमन करते हुए अपने शुद्धात्माकी भावनाके बलसे वीतराग भावमें सावधानी प्राप्त की है तथा अनशन आदि छः बाहरी तपोंके वलसे अंतरंगमें शुद्ध आत्माकी भावनाके सम्बन्धमें औरोंसे विजय प्राप्त किया है ऐसा तप करनेमें भी श्रेष्ठ है। इन तीन विशेषणोंसे युक्त साधु होनेपर भी यदि अपनी इच्छासे मनोक्त आचरण करनेवाले भृष्ट साधुका व लौकिक जनोंका संसर्ग न छोड़े तो वह स्वयं संयमसे छूट जाता है। भाव यह है कि स्वयं आत्माकी भावना करनेवाला होनेपर भी यदि संवर रहित स्वेच्छाचारी मनुष्योंकी संगतिको नहीं छोड़े तो अति परिचय होनेसे जैसे अग्निकी संगतिसे जल उप्णपनेको प्राप्त होजाता है ऐसे वह साधु विकारी होनाता है।
भारार्थ-इस गाथामें भी आचायने कुसंगतिका निशेध किया है । जो साधु बड़ा शास्त्रज्ञ है, शांत परिणामी है और तपस्वी है वह भी जब भृष्ट साधुओंकी संगति करता है तथा असंयमी लोगोंके साथ बैठता है, बात करता है तो उनकी संगतिके कारण अपने चारित्रमें शिथिलता कर लेता है । गृहस्थोंको दूर बैठाकर केवल जो धर्मचर्चा करके उनको धर्म मार्गमें आरूढ़ करता है वह कुसंगति नहीं है, किंतु गृहस्थोंको अपने ध्यान स्वाध्यायके कालमें अपने निकट बैठाकर उनके साथ लौकिक वार्ता करना जैसे-दो गृहस्थ मित्र बातें करें ऐसे बातें करना-साधुओंमें मोह बढ़ानेवाला है तथा - समता भावकी भूमिसे गिरानेवाला है । परिणामोंकी विचित्र