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तृतीय खण्ड ।
सत्सगो हि बुधैः कार्यः सर्वकालसुखप्रदः । तेनैव गुरुतां याति गुणहीनेोऽपि मानवः ॥ २७० ॥ रागादयो महादोषाः खलास्ते गदिता चुधैः । ' तेषां समाश्रयास्त्याज्यस्तत्त्वविदुभिः सदा नरैः ॥ २७२ ॥ भावार्थ- सर्व दोषों को बढ़ानेवाले कुसंगको सदा ही छोड़ देना चाहिये, क्योंकि कुसंगसे गुणवान मानव भी शीघ्र ही लघुताको प्राप्त होजाना है । बुद्धिमानोंको चाहिये कि सर्व समयों में सुख देनेवाले सत्संगको करें: इसीके प्रतापसे गुण हीन मनुष्य भी बड़ेपनेको प्राप्त होजाता है । आचायने रागादि महा दोषोंको दुष्ट कहा है इसलिये तत्वज्ञानी पुरुषोंको इन दुष्टोंका आश्रय बिलकुल त्याग देना चाहिये |
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उत्थानिका- आगे लौकिक जनोंकी संगतिको मना करते हैंणिच्चिदसुत्तस्थपदो समिकसायो तवोधगो चावि । लौगिगजनसंसगं ण जयदि जदि संजदो ण हवदि ||८१ ॥ निश्चितसूत्रार्थपदः समितकषायस्तपोधिकश्चापि लौकिकजनस सर्ग न जहाति यदि संयतो न भवति ॥८६॥
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अन्य सहित सामान्य, ( णिच्छिदसुत्तत्थपदो ) जिसने सूत्रके अर्थ और पदोंको निश्चय पूर्वक जान लिया है, ( समिद कसायो ) पायों को शांत कर दिया है ( तवोधिको चावि ) तथा तप करनेमे भी अधिक है ऐसा साधु (जदि ) यदि (लौगिगजणसंसग्गं ) लौकिक जनोंका अर्थात असंयमियोंका या भ्रष्टचारित्र साधुओं का संगम (ण जहदि) नहीं त्यागता है (संजदो ण हवदि ) तो वह सयमी नहीं रह सक्ता है।
विशेषार्थ - जिसने अनेक धर्ममई अपने शुद्धात्माको आदि