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तृतीय खण्ड ।
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(बट्टंति) वर्तन करते हैं (ते) वे (मिच्छुवजुत्ता) मिथ्यात्व सहित तथा ( प भट्टचारिता) चारित्र रहित (हवंति) होजाते हैं ।
विशेषार्थ - यदि कोई बहुत शास्त्र के ज्ञाताओंके पास स्वयं चारित्र गुणमें अधिक होनेपर भी अपने ज्ञानादि गुणोंकी वृद्धिके लिये वंदना आदि क्रियाओंमें वर्तन करै तो दोष नहीं है, परन्तु यदि अपनी बड़ाई व पूजाके लिये उनके साथ वंदनादि क्रिया करे तो मर्यादा उल्लंघन से दोप है । यहां तात्पर्य यह है कि जिस जगह वंदना आदि क्रियाके व तत्व विचार आदिके लिये वर्तन करे परन्तु रागद्वेपकी उत्पत्ति हो जावे उस जगह सर्व अवस्थाओं में संगति करना दोष ही है । यहां कोई शंका करे कि यह तो तुम्हारी ही कल्पना है, आगममें यह बात नहीं है ? इसका समाधान यह है कि सर्व ही आगम रागद्वेपके त्यागके लिये ही हैं किन्तु जो कोई साधु उपसर्ग और अपवादरूप या निश्चय व्यवहाररूप आगममें कहे हुए नय विभागको नहीं जानते हैं वे ही रागद्वेष करते हैं और कोई नहीं ।
भावार्थ - इस गाथामें आचार्य ने कहा है कि उच्च साधुओंको नीचोंकी संगति भी न करनी चाहिये, क्योंकि संगतिसे चारित्र में शिथिलता आ जाती है । जो साधु चारित्रवान हैं वे यदि ऐसे साधुओंकी संगति करें जो चारित्र हीन हैं, चारित्र में शिथिल हैं - तो वे चारित्रवान भी परिणामोंमें शिथिलाचारी होकर शिथिलाचारी हो सक्ते हैं । जो साधु यथार्थ अट्ठाईस मूलगुणोंके पालनेवाले हैं वे चाहे अपनेसे ज्ञानमें हीन हों चाहे अधिक हों, उनके साथ वंदना स्वाध्याय आदि क्रियाओं में