________________
३१६ ] श्रोप्रवचनसारटोका ।
णगत्तणं अकजं भावणरहियं जिणेहिं पण्णत्तं । इय णाऊण य णिचं भाविजहि अप्पयं धीर ॥ ५५ ॥
भावार्थ-भावोंसे ही नग्नपना है । मात्र बाहरी नंगे भेपसे क्या ? भाव सहित द्रव्यलिंगके प्रतापसे ही यह जीव कर्म प्रकृतिथोंके समूहका नाश कर सकता है | जिनेन्द्र भगवानने कहा है कि जिसके भाव नहीं है उसका नग्नपना कार्यकारी नहीं है ऐसा जानकर हे धीर! नित्य ही आत्माकी भावना कर । जो.गुणाधिकोंकी विनय चाहते हैं उनके सम्बन्धमें दर्शनपाहुड़में स्वामीने कहा है:
जे दसणेण भट्ठा पाए पाडंति दसणधराणं। . ते होति ललमूआ वोही पुण दुल्लहा तेर्सि ॥ १२ ॥ ___ भावार्थ-जो साधु स्वयं सम्यग्दर्शनसे भृष्ट हैं और जो सम्यग्दृष्टी साधु हैं उनसे अपने चरणोंमें नमस्कार कराते हैं वे मरके लूले बहरे होते हैं उनको रत्नत्रयकी प्राप्ति उत्यंत दुर्लभ है । ___ उस्थानिका--आगे यह दिखलाते हैं कि जो स्वयं गुणोंमें अधिक होकर गुणहीनोंके साथ बंदना आदि क्रियाओंमें वर्तन करते हैं उनके गुणोंका नाश होजाता है।
अधिगगुणा सामण्णे रहति गुणाधरेहिं किरिया । जदि ते मिच्छुबजुत्ता हवंति फपहचारित्ता ॥ ८८॥ अधिकगुणाः श्रामण्ये वर्तन्ते गुणाधः क्रियासु । - यदि ते मिथ्योपयुक्ता भवन्ति प्रभृष्टचारित्राः ॥ ८८ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(सामण्णे) मुनिपनेके चारित्रमें (अधिगगुणा) उत्कृष्ट गुणधारी साधु ( जदि ) जो (गुणाधरेहिं) गुणहीन साधुओं के साथ ( किरियासु ) वन्दना आदि क्रियाओंमें