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श्रीप्रवचनसारटीका ।
धेनुः स्ववत्स इव रागरसादभीक्षणं, दृष्टि क्षिपेन मनसापि सहेत्क्षति च । 'धर्मे सधर्मसु सुधीः कुशलाय बद्ध
प्रेमानुबन्धमथ विष्णुवदुत्सहेत ॥ १०७ ॥ भावार्थ - जैसे गौ अपने बछड़ेपर निरंतर प्रेमालु होकर दृष्टि रखती है तथा मनसे भी उसकी हानिको नहीं सहन कर सक्ती है इसी तरह बुद्धिमान मनुष्यको चाहिये कि वह धर्म तथा धर्मात्माओंको अपने हितके लिये निरन्तर प्रेमभावसे देखें तथा धर्म व धर्मात्मा की कुछ भी हानि मनसे भी सहन न करे - सदा प्रेमरसमें बंधे हुए साधर्मी मुनियों व श्रावकोंकी सेवामें उत्साहवान हो विष्णुकुमार मुनिकी तरह उद्यम करता रहे। इस कथन से सिद्ध है कि साधुजन कभी दोषग्राही नहीं होते, न मनमें द्वेषभाव रखते हुए योग्य मार्गपर चलनेवालोंकी निन्दा करते हैं; किंतु सर्व साधर्मीजनोंसे प्रेमभाव रखते हुए उनका हित ही वांछते हैं ।
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यहां शिष्यने कहा कि आपने अपवाद मार्गके व्याख्यानके समय शुभोपयोगका वर्णन किया अब यहां फिर किसलिये उसका व्याख्यान किया गया है ? इसका समाधान यह है कि यह कहना आपका ठीक है, परन्तु वहांपर सर्व त्याग स्वरूप उत्सर्ग व्याख्यानको करके फिर असमर्थ साधुओंको कालकी अपेक्षासे कुछ भी ज्ञान, संयमं व शौचका उपकरण आदि ग्रहण करना योग्य है इस अपवाद व्याख्यानकी मुख्यता है । यहां तो जैसे भेद नयसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र व सम्यग्तप रूप चार प्रकार आराधना होती है सो ही अभेद नयसे सम्यग्दर्शन और सम्यम्चा - रित्र रूपसे दो प्रकारकी होती हैं । इनमें भी और अभेद नयसे