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तृतीय खण्ड। परदोष ग्रहण व परनिन्दा करनेकी आदत पड़ जाती है वे साधु अपने भाव साधुपनेसे छूटकर केवल द्रव्यलिंगी ही रह जाते हैं, अतएव इस भावको दूरकर साधुओंको साम्य भावरूपी वागमें रमण करना योग्य है। अनगारभावना मूलाचारमें कहा है:
भासविणयविहूर्ण धम्मश्रोिही विवजये वयणं । पुच्छिदमुपुच्छिदं वा जवि ते भासति सप्पुरिसा ॥८॥ जिणवयणभासिदत्थं पत्थं च हिदं च धम्मसंजुत्तं । समओवयारजुत्तं पारत्तहिदं कधं करेति ॥ ६४ ॥
भावार्थ-साधुनन विनयरहित, धर्मविरोधी बचनको कभी नहीं कहते हैं तथा यदि कोई पूछो वा न पूछो वे कभी भी धर्म भावरहित वचन नहीं कहते हैं । साधुजन ऐसी कथा करते हैं जो जिन वचनोंमें प्रगट किये हुए पदार्थोंको बतानेवाली हो, पथ्य हो अर्थात् समझने योग्य हो, हितकारी हो व धर्मभाव सहित हो, आगमकी विनय सहित हो तथा परलोकमें भी हितकारी हो ।
मूलाचारके पंचाचार अधिकारमें कहा है कि सम्यग्दृष्टी साधुओंको वात्सल्यभाव रखना चाहिये
चादुवण्णे स'घे चदुगतिसंसारणित्थरणभूदे। वच्छल्लं काव्वं वच्छे गावी जहा गिद्धो ॥ ६६ ॥
भावार्थ-जैसे गौ अपने बच्चेमें प्रेमालु होती है उसी तरह चार प्रकार मुनि, आर्जिका, श्रावक, श्राविकाके संघमें जो चार गतिरूप संसारसे पार होनेके उपायमें लीन हैं-परम प्रेमभाव - रखना चाहिये।
अनगारधर्मामृत द्वि० अध्यायमें कहा है