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तृतीय खण्ड। . [३०६ जह तारायणसहियं ससहरविवं खमंडले विमले। भाविय तववयविमलं जिणलिंग दंसणविसुद्धं ॥ १४६ ॥
भावार्थ-जैसे निर्मल आकाश मंडलमें तारागण सहित चंद्रमाका विम्ब शोभता है ऐसे ही सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध व तप तथा व्रतोंसे निर्मल जिनलिंग या मुनिलिंग शोभता है। ___उत्थानिका-आगे जो रत्नत्रय मार्गमें चलनेवाला साधु है उसको जो दूपण लगाता है उसके दोपको दिखलाते हैं
अववददि सासणथं समणं दिवा पदोसदो जो हि । किरिया गाणुमण्णदि वदि हि सो पहचारित्तो॥८॥ अपवदति शासनस्थं श्रमणं दृष्ट्वा प्रद्वेषतो यो हि । क्रियासु नानुमन्यते भवति हि स नष्टचारित्रः ॥ ८६ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(जो ) जो कोई साधु (हि) निश्चयसे (सासणत्थं) मिनमार्गमें चलते हुए (समण) साधुको (दिट्ठा) देखकर (पदोसदो) द्वेपभावसे (अववददि) उसका अपवाद करता है, (किरियासु) उसके लिये विनयपूर्वक क्रियाओंमें ( णाणुमण्णदि) नहीं अनुमति रखता है (सो) वह साधु (हि) निश्चयसे ( गट्ठचारित्तो ) चारित्रसे भृष्ट (हवादि) हो जाता है।
विशेपार्थ-जो कोई साधु दूसरे साधुको निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्गमें चलते हुए देखकर भी निर्दोष परमात्माकी भावनासे शून्य होकर द्वेषभावसे या कपायभावसे उसका अपवाद करता है इतना ही नहीं उसको यथायोग्य वंदना आदि कार्योकी अनुमति नहीं करता है वह किसी अपेक्षासे मर्यादाके उल्लंघन करनेसे चारित्रसे भृष्ट हो जाता है। जिसका भाव यह है कि यदि रत्नत्रय