________________
३०८] श्रीप्रवचनसारटोका।
सम्यक्त्त्वं परमं रत्नं शंकादिमलवर्जितम् । संसारदुःखदारिदयं नाशयेत्सुविनिश्चितम् ॥ ४० ॥ सम्यक्त्वेन हि युक्तस्य ध्रुवं निर्वाणसंगमः । मिथ्यादृशोऽस्य जीवस्य संसारे भ्रमणं सदा ॥ ४१ ॥ पंडितोऽसौ विनीतोऽसौ धर्मशः प्रियदर्शनः । यः सदाचारसम्पन्नः सम्यक्त्वदृढमानसः॥ ४२ ॥"
भावार्थ-सम्यग्दर्शन ही परम रत्न है। जिसमें शंका आदि पचीस दोष न हों यही निश्चयसे संसारके दुःखरूपी दालिद्रको नाश कर देता है । जो सम्यग्दर्शनसे संयुक्त है उसको निश्चयसे निर्वाणका लाभ होगा और मिथ्यादृष्टी जीवका सदा ही संसारमें भ्रमण होगा। वही पंडित है, वही शिष्य है, वही धर्मज्ञाता है, वही दर्शनमें प्रिय है जो सम्यग्दर्शनको मनमें दृढ़तासे रखता हुआ सदाचारको अच्छी तरह धारण करता है। भाव ही प्रधान है ऐसा । श्री कुन्दकुन्द भगवानने भावपाहुड़में कहा है:देहादिसंगरहिओ माणकसापहि सयलपरिचत्तो । अप्पा अप्पम्मि रओ स भावलिंगो हवे साहू ॥ ५६ ॥
भावार्थ-जो शरीर आदिके ममत्वसे रहित है, मान कपायोंसे चिल्कूल दूर है तथा जिसका आत्मा आत्मामें लीन हैं वही भावलिंगी साधु है।
पार्वति भावसवणा कल्लाणपरंपराई सोपखाई। दुक्खाई दब्बसवणा णरतिरियकुदेवजोणीए ॥ १०० ॥
भावार्थ-जो भावलिंगी सम्यग्दृष्टी साधु हैं वे ही कल्याणकी परम्परासे पूर्ण सुखोंको पाते हैं तथा जो मात्र द्रव्यलिंगी साधू हैं वे मनुष्य, तिर्यंच व कुदेवकी योनियोंमें दुःखोंको पाते हैं।