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तृतीयः खण्ड।
[२ तुम्हारे आत्माका मैं जन्मदाता नहीं-निस शरीरके निर्माणमें मेरेसे सहायता हुई है वह शरीर जड़ है। यदि तुमको मेरे उपकारको . स्मरणकर 'जो मैंने तुम्हारे शरीरके लालनपालनमें किया है। मेरा भी कुछ प्रत्युपकार करना है तो तुम यही कर सक्ते हो कि इस मेरे
आत्मकार्यमें तुम हर्षित हो मेरेको उत्साहित करो तथा मेरी इस शिक्षाको सदा स्मरण कर उसके अनुसार चलो कि धर्म ही इस जीवका सच्चा मित्र, माता, पिता, बन्धु है | धर्मके साधनमें किसी भी व्यक्तिको प्रमाद न करना चाहिये । विषयकषायका मोह नर्क निगोदादिको लेजानेवाला है व धर्मका प्रेम स्वर्ग मोक्षका साधक है।
प्रिय कुटुम्बीजनों! तुम सवका नाता मेरे इस शरीरसे है। मेरे आत्मासे तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये इस क्षणभंगुर शरीरको तपस्यामें लगते हुए तुम्हें कोई शोक न करके बड़ा हर्ष मानना चाहिये और यह भावना भानी चाहिये कि तुम भी अपने इस देहसे तप करके निर्वाणका साधन करो।
इस तरह सर्वको समझाकर उन सबका मन शांत करे। यदि वे समझाए जानेपर भी ममत्व बढ़ानेकी बातें करें, संसारमें उलझे रहनेकी चर्चा करें तो उनपर कोई ध्यान न देकर साधु पदवी धारनेके इच्छक हो स्वयं ममताकी डोर तोड़कर गृह त्यागकर चले जाना चाहिये । वे जबतक ममता न छोड़े, मैं कैसे गृहवास तजूं' इस मोहके विकल्पको कभी न करना चाहिये।
यह कुटुम्बको समझानेकी प्रथा एक मर्यादा मात्र है । इस वातका नियम नहीं है कि कुटुम्बको समझाए विना दीक्षा ही न लेवे । बहुतसे ऐसे अवसर आजाते हैं कि जहां कुटुम्ब अपने