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१२] श्रीप्रवचनसारटीका । जिनेन्द्र गुणगान करके मुझे वधाई देनी चाहिये तथा मेरी सहायता करनेको व मेरेसे हित दिखलानेको आपको भी इस नाशवंत अतृप्तिकारी संसारके मायाजालसे अपने इस उलझे हुए मनको छुड़ाकर मुक्तिके अनुपम अतीन्द्रिय आनन्दके लेनेके लिये मेरे साथ मुनिव्रत व आर्यिकाके व्रत व गृहत्यागी क्षुल्लकादि श्रावकके व्रत धारण करनेका भाव पैदा करना चाहिये ।
प्रिय माता पिता ! आप मेरे इस आत्माके माता पिता नहीं हैं क्योंकि यह अजन्मा और अनादि है, आप मात्र इस शरीरके जन्मदाता हैं जो जड़ पुद्गलमई है । आपका रचा हुआ शरीर मेरे मुक्तिके साधनमें उद्यमी होनेपर विषयकवायके कार्योसे छूटते हुए एक हीन कार्यसे मुनिव्रत पालनमें सहाई होनेरूप उत्कृष्ट कार्यमें काम आरहा है उसके लिये आपको कोई शोक न करके मात्र हर्षभाव बताना चाहिये।
प्रिय कान्ते !तू मेरे इस शरीररूपी झोपड़ेको खिलानेवाली व इससे नेह करके मुझे भी अपने शरीरमें नेह करानेवाली है । नेरा मेरा भी सम्बन्ध इस शरीरके ही कारण है-मेरे आत्माने कभी किसीसे विवाह किया नहीं, उसकी स्त्री तो स्वानुभूति है जो सदा उसके अंगमें परम ग्रेमालु होव्यापक रहती है। तू मेरे शरीरकी स्त्री है । तुझे इस शरीर द्वारा उत्तम कार्यके होते हुए कोई शोक न करके हर्ष मानना चाहिये तथा स्वयं भी अपने इस क्षणभंगुर जड़ गरीरसे आत्महित करलेना चाहिये । संसारमें जो विषयभोगोंके दास हैं वे ही मूर्ख हैं। जो आत्मकार्यके कर्ता हैं वेही बुद्धिमान हैं। ___ हे प्रिय पुत्र पुत्रियो !तुम भी मुझसे ममताकी डोर तोड़दो।