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२८८] श्रीप्रवचनसारटोका । अपने भावोंमें कषायोंको मंद कर सेवा करता है, उनको आहार
औषधि देता है, उनकी टहल चाकरी करता है, उसके मंद कषायों के कारण कुछ पुण्य कर्मका बंध होजाता है जिससे वह मरकर व्यंतर, भवनवासी व ज्योतिषी इन तीन प्रकार देवोंमें भी नीच -देवोंमें अथवा नीच मनुष्योंमें जन्म प्राप्त करलेता है। यहांपर तत्व यह है कि पुण्य कर्मका वंध मंद कषायसे व पापकर्मका बंध तीव्र कपायसे होता है। एक आदमी हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील व परिग्रहके व्यापारमें तन्मय हो रहा है उस समय इसके लोम या मान आदि कषाय बहुत तीव्र है-वही आदमी इन कामोंसे उपयोग हटाकर किसी अज्ञानी साधुको भोजन पान दे रहा है व उसके शरीरकी सेवा कर रहा है अथवा उसको वस्त्रादि दान कर रहा है तव उस आदमीके भावों में हिंसादि कर्मोमें प्रवर्तनेकी अपेक्षा कपाय मंद है, इसलिये इस मूढ़ भक्तिमें भी असाता वेदनीय, तियच व नरक आयु व नरक तिर्यचगतिका बंध न पड़कर साता वेदनीय, मनुप्य या देव आयु तथा गतिका बंध पड़ेगा, परन्तु मिथ्यात्व व अज्ञानके फलसे नीच गोत्र व बहुत हल्के दर्जेका उच्च गोत्र कर्म बांधेगा व हलके दरजेका शुभ नाम या अशुभ नामकर्म वांधेगा। मंद कषायसे अघातियामें कुछ पुण्य कर्म वांध लेगा परंतु घातिया कर्मोमें तो पाप कर्म ज्ञानावरणादिका दृढ़ बंध करे ही गा, क्योंकि वह मूढ़ता व मिथ्या श्रद्धाके आधीन है। इससे वह मरकर भूत प्रेत व्यंतर होजायगा या अल्प पुण्यवाला मनुष्य हो जायगा-जैसे भावोंमें लेश्या होती है वैसा उसका फल कर्म बंध होता है। मूढ- भक्ति करनेवाले भी मूढ़ धर्म व धर्मके पात्रोंके लिये. अपने धन, तन व कुटुम्बादिका