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तृतीय खण्ड। अविदिदपरमत्थेमु य विसयकसायाधिगेमु पुरिसेम । जुहूं कदं व दत्तं फलदि कुदेवेसु मणुजेम् ॥ ७८ ।। अविदितपरमार्थेषु च विषयकषायाधिकेषु पुरुषेषु । जुष्टं कृतं वा दत्तं फलति कुदेवेषु मनुजेषु ॥ ७८ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-( अविदिदपरमत्थेसु ) जो परमार्थ अर्थात् सत्यार्थ पदार्थोंको नहीं जानते व निनको परमात्माके तत्वका श्रद्धान ज्ञान नहीं है (य विषयकसायाधिगेसु ) तथा जिनके भीतर पंचेंद्रियोंके विषयोंकी तथा मान लोभ आदि कषायोंकी बड़ी प्रबलता है ऐसे ( पुरुसेसु) पात्रोंमें ( जुटुं ) की हुई सेवा (कदं) किया हुआ परोपकार (व दत्तं ) या दिया हुआ आहार औषधि आदि दान (कुदेवेसु) नीच देवोंमें (मणुजेसु) और मनुष्योंमें (फलदि ) फलता है।
विशेषार्थ-जिन पात्रोंके या साधुओंके सच्चे देव, गुरु, धर्मका ज्ञान श्रद्धान नहीं है व जो विषय कषायोंके आधीन होनेके कारण निर्विकार शुद्धात्माके स्वरूपकी भावनासे रहित हैं उनकी भक्तिके फलसे नीच देव तथा मनुप्य होसक्ता है।
भावार्थ-यहांपर भी गाथामें आचार्यने कारणकी विपरीततासे फलकी विपरीतता बताई है । जगतमें ऐसे अनेक साधु हैं जिनको स्याद्वाद नयसे अनेक धर्म स्वरूप आत्मा तथा अनात्माका सच्चा बोध नहीं है तथा न जिनको सचे आत्मीक सुखक पहचान है व जो संसारिक सुखकी वासनाके आधीन होकर लोभ कषायवश या मान कषायवश अपनी प्रसिद्धि पूजा लाभादिकी चाहनाके आधीन होकर बहुत काय लेशादि तप करते हैं ऐसे अपात्रोंकी भी जो