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श्रीप्रवचनसारटोका |
दपूजोवदेसो य) तथा यथासंभव जिनेन्द्रकी पूजाआदिका धर्मोपदेश ये सव (सरागाणं चरिया) अर्थात धर्मानुराग सहित चारित्र पालनेचालोंका ही चारित्र है ।
विशेपार्थ- कोई शिष्य प्रश्न करता है कि साधुओंके चारित्रके कथनमें आपने बताया कि शुभोपयोगी साधुओंके भी कभी२ शुद्धोपयोगकी भावना देखी जाती है तथा शुद्धोपयोगी साधुओंके भी कभी २ शुभोपयोगकी भावना देखी जाती है तैसे ही श्रावकों के भी सामायिक आदि उदासीन धर्मक्रियाके कालमें शुद्धोपयोगी भावना देखी जाती है तब साधु और श्रावकोंमें क्या अंतर रहा ? इसका समाधान आचार्य करते हैं कि आपने जो कहा वह सब युक्ति संगत है- ठीक है । परन्तु जो अधिकतर शुभोपयोगके द्वारा ही वर्तन करते हैं यद्यपि कभी कभी शुद्धोपयोगी भावना कर लेते हैं ऐसे अधिकतर शुभोपयोगी भावकोंको शुभोपयोगी ही कहा है क्योंकि उनके शुभोपयोगी प्रधानता है । तथा जो शुद्धोपयोगी साधु हैं यद्यपि वे किसी काल में शुभोपयोग द्वारा वर्तन करते हैं तथापि वे शुद्धोपयोगी हैं क्योंकि साधुओंके शुद्धोपयोगकी प्रधानता है। जहां जिसकी बहुलता होती है - वहां कम बातको न ध्यान में लेकर बहुत जो वात होती है उसी रूप उसको कहा जाता है। हर जगह कथन के व्यवहारमें बहुलताकी प्रधानता रहती है। जैसे किसी जनमें आम्रवृक्ष अधिक हैं व और वृक्ष थोड़े हैं तो उसको आम्रवन कहते हैं और जहां नीमके वृक्ष बहुत हैं आम्रादिके कम हैं वहां उसको नीमका वन कहते हैं, ऐसा व्यवहार है ।