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तृतीय खण्ड ।
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भावार्थ-मुनियोंके समूहमें रोगी साधुकी, शिक्षा व दीक्षा दाता गुरुकी, बालक व वृद्ध साधुकी व शिष्य साधुओंकी यथायोग् सेवा अपनी शक्ति के अनुसार प्रयत्नपूर्वक करनी योग्य है । अनगार धर्मामृत ७ वें अध्यायमें है
समाध्या धानसानाये तथा निर्विचिकित्सता । सधर्मवत्सलत्वादि वैय्यावृत्येन साध्यते ॥ ८१ ॥
भावार्थ - वैयावृत्त्य करनेसे ध्यानकी थिरता व रानाथपणा तथा ग्लानिका मिटना, साधर्मियोंसे प्रेम आदि कार्योंकी सिद्धि होती है । हम तुम्हारे रक्षक हैं यह भाव सनाथपना है । वास्तवमें शुभोपयोगरूप साधन भी बड़ा ही उपकारी है। यदि साधु परस्पर एक दूसरेकी रक्षा न करे, परस्पर वैयावृत्त्य न करे, परम्पर विनय नमस्कार न करे तो परस्पर चारित्रकी वृद्धि न परस्पर शुद्धोपयोग साधनका उत्साह न बढ़े ॥ ६८ ॥
तथा.
उत्थानिका- आगे फिर भी कहते हैं कि शुभोपयोगी साधुओंकी ऐसी प्रवृत्ति होती हैं न कि शुद्धोपयोगी साधुकी
दंसणगारदेो विस्सग्गहणं च पोराणं तेसि | वरिया हि सरागार्ग जिर्णिदपूजोवदेसो य ॥ ८१ ॥ दर्शनज्ञानोपदेशः शिप्यग्रहणं च पोपणं तेषां । चर्चा हि वाणां जिनेन्द्रपूजोपदेशयव ॥ ६६ ॥ अन्यच सहित सामान्पार्थ- (संसगणाणुको) आदि पचीस दोष रहित सम्यक्त तथा परनागमका उपदेश, (झिलग्गहणं) रत्नत्रयके जारापक शिष्यों को दीक्षित करना (च तेसिं पोपण) और उन शिष्योंको योजनादि प्राप्त हो ऐसी पोपनेकी चिंता (जिणि-,
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