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तृतीय खण्ड। [२४६ पयोगमें वर्तना मुनिका अपवादमार्ग है, उत्सर्गमार्ग नहीं है । शुभोपयोगी साधुओंकी दृष्टि शुद्धोपयोगकी ही तरफ रहती है, इसलिये ऐसा शुभोपयोग साधुओंके चारित्रमें हस्तावलम्बनरूप है, परन्तु यदि शुद्धोपयोगकी भावनासहित न हो तो वह निश्चय चारित्रका सहाई न होनेसे मात्र पुण्यबांधके संसारका कारण है, मुक्तिका हेतु नहीं है । इसीलिये. शुभोपयोगरूप विनयको तथा वयावृत्यको तप संज्ञा दी है कि ये दोनों अपने तथा अन्यके स्वरूपाचरण चारित्रके उपकारी हैं ।
श्री मूलाचार पंचाचार अधिकारमें कहते हैं:उवगृहणादिया पुव्युत्ता तह भत्तिआदिआ य गुणा । संकादिवजणं पिय दंसणविणओ समासेण ॥ १६८॥
भावार्थ-उपगृहन, स्थितीकरण, वात्सल्य, प्रभावना आदि सम्यक्तके आठ अंगोंके पालनेमें उत्साही रहना तथा अरहंतादि पंचपरमेष्टीकी भक्ति व पूजा करनी, शंका कांक्षा आदि दोप न लगाना सो दर्शनका विनय है।
विणओ मोक्खहार विणयादो संजमो क्यो णाणं। विणएणाराहिजदि आइरिभो सम्बसंघो व ॥ १८६ ।।
भावार्थ-विनय मोक्षका द्वार है, विनयसे संयम तथा ज्ञानकी वृद्धि होती है। विनय ही करके आचार्य और सर्व संघकी सेवा की जाती है। शुभोपयोगमें ही साधुओंकी वैयावृत्ति की जाती है । जैसा वहीं कहा है--
आइरियादिसु.पंचसु सवालवुड्ढाउलेसु गच्छेसु । वेजावचं वृत्तं कादचं सव्वसत्तोए ॥ १९२ ॥