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श्रीप्रवचनसारटोका ।
भावार्थ-जो सर्व मोहादि भीतरी परिग्रहसे रहित हैं, ममता रहित हैं तथा क्षेत्रादि बाहरी परिग्रहसे रहित हैं, नग्नरूपधारी हैं, शरीर संस्कारसे रहित हैं वे जिन प्रणीत चारित्रको ममतासे पालते हैं। जो सर्व अर्सि मसि आदि आरंभसे रहित हैं, जिन प्रणीत धर्ममें युक्त हैं, वे बालमात्र भी परिग्रहमें ममता नहीं करते हैं । ऐसे ही साधु समताभावमें रमण करते हुए सदा सुखी रहते हैं ।
इस गाथाका तात्पर्य यही समझना चाहिये कि जिसके आगमज्ञान, तत्वार्थ श्रद्धान व संयमपना होगा व साथ ही सच्चा आत्मज्ञान होगा व जो आत्मानंद रसिक होगा उस साधुका यही लक्षण है कि वह हर तरह समता व शांतिका रस पान करता रहे । उसे कोई कुछ भी कहे वह अपने परिणामोंको विकारी न करे ॥ ६२ ॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं जो यहां संयमी तपस्वीका साम्यभाव लक्षण बताया है वही साधुपना है तथा वही मोक्षमार्ग कहा जाता हैदसणणाणचरित्तेनु तीमु जुगर समुहिदो जो दु । एयग्गगदोत्ति पदो सामष्णं तस्स परिपुण् ॥ १३ ॥ दर्शनज्ञानचरित्रेषु विषु युगपत्समुत्थिती यस्तु । एकाग्रगत इति मतः श्रामण्यं तस्य परिपूर्णम् ॥ ६३ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थः-(जो दु) जो कोई (दसणणाण चरितेसु तीसु ) इन सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तीनोंमें (जुगवं समुट्टिदो) एक काल भले प्रकार तिष्ठता है (एयग्गगदोत्ति मदो) वही एकाग्रताको प्राप्त है अर्थात् ध्यान मग्न है ऐसा माना गया है (तम्स परिपुण्णं सामण्ण) उसीके यतिपना परिपूर्ण है। ।