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तृतीय खण्ड।
[२३१ निस महात्माके भीतर राजता है वही जेन साधु है । वास्तवमें सुखदुःख मानने, अच्छावुरा समझने, मान अपमान गिननेके जितने भाव हैं वे सब रागद्वेषकी पर्यायें हैं-कपायके ही विकार हैं। परम तत्त्वज्ञानी साधुने कषायोंको त्याग करके वीतराग भावपर चलना शुरू किया है इसलिये उनके कषायभाव नहीं होते । वे बाहरी अच्छी बुरी दशामें समताभाव रखते हुए उसे पुण्य पापका नाटक जानते हुए अपने निष्कपाय भावसे हटते नहीं । ऐसे साधु आत्मानुभवरूपी समताभावमें लवलीन रहते हैं इसीसे वाहरी चेष्टाओंसे अपने परिणामोंमें कोई असर नहीं पैदा करते । साधुओंको मुक्ति द्वीपमें जन्मना ही सच्चा जन्म भासता है। शरीरोंका बदलना वस्त्रोंके बदलनेके समान दिखता है । जो भावलिंगी साधु हैं उनके ये ही
सो ही मोक्षपाहुडमें कहा हैजो देहे हिरवेक्खो णिइंदो णिम्ममो णिरारंभो। आदसहावे सुरओ जोई सो लहई णिव्वाणं ॥ १२॥
भावार्थ-जो शरीरकी ममता रहित है, रागद्वेषसे शून्य है, यह मेरा इस बुद्धिको जिसने त्याग दिया है, व जो लौकिक व्यापारसे रहित है तथा आत्माके स्वभावमें रत है वही योगी निर्वाणको पाता है।
मूलाचार अनगारभावनामें कहा हैजो सव्वगंथमुक्का अममा अपरिग्गहा जहाजादा । वोसट्टचत्तदेहा जिणवरधम्म समं णेति ॥ १५ ॥ सव्वारंभणिवत्ता जुत्ता जिणदेसिदम्मि धम्मम्मि । ण य इच्छंति ममत्ति परिग्गहे वालमित्तम्मि । १६ ॥