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तृतीय खण्ड । [२२६ होकर आत्मरसम्म ही पान करना चाहिये । जो ऐसे साधु हैं वे ही सच्चे संयमी है व मोक्षमार्गी हैं ॥ ६१ ॥
उत्थानिकता-आगे आगमका ज्ञान, तत्वार्थ श्रद्धान, संयमीपना इन तीन विकल्परूप लक्षणसे एकसाथ युक्त तथा तब ही निर्विकल्प आत्मज्ञानमे युक्त नो गाई संयमी होता है उसका क्या लक्षण है ऐमा उपदेश करते हैं। यहां "इति उपदेश करते हैं इसका यह भाव लेना कि शिप्यके प्रश्नका उत्तर देते हैं। इस तरह प्रश्नोत्तरको दिखाने के लिये कहीं २ यथासंभव इति शब्दका अर्थ लेना योग्य है। समसत्तुधुनग्गो सामुनुकायो पसंलगिदसमो। समलोद लवणो पुण जीविनरणे समो सयणो ॥२॥ समशत्रयन्धुवर्गः समसुखदुःखः प्रशंसानिन्दासमः । समलोष्टकांचनः पुनजाक्तिमरणे समः श्रमणः ॥ १२॥
अन्त्रय सहित सामान्यार्थ-( समसत्तुबंधुवग्गो ) जो शत्रु व मित्र समुदायमें समान बुद्धिका धारी है, (समसुहदुक्खो) जो सुख दुःव समानभाव रखता है, ( पसंमणिदसमो ) जो अपनी प्रशंसा व निन्दामें समताभाव करता है, (रामलोट टुकंचणो ) जो कंकड़ और सुवर्णको समान समझता है, (पुण) तथा (गीविदमरणे समो) जो जीवन तथा मरणको एकमा जानता है वही (समणों) श्रमण या साधु है।
विशेषार्थ-शत्रु बंधु, सुख दुःख, निन्दा प्रशंसा, लोष्ट कंचन तथा जीवन मरणमें समताकी भावनामें परिणमन करते हुए अपने ही शुद्धात्माका सम्यग्नद्धान, ज्ञान तथा आचरणरूप जो