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श्रीप्रवचनसारटोका 1
नियमसे प्राप्त कर लेते हैं इसलिये तुम सब लोग प्रयत्नचित होकर
एक आत्मध्यानका ही अभ्यास करो ।
श्रीचंद्र आचार्यने तत्वार्थसार में कहा है:श्रद्धानाधिगमोपेक्षाः शुद्धस्य स्वात्मनो हियाः । सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा मोक्षमार्गः स निश्चयः ॥ ३ ॥ श्रtaforमोपेक्षा याः पुनः कुः परात्मना । सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा स मार्गो व्यवहारतः ॥ ४ ॥ आत्माशाततयाज्ञानं सम्यकं चरितं हि सः । स्वस्थो दर्शनचारित्र मोहाभ्यामनुपप्लुतः ॥ ७ ॥ पश्यति स्वस्वरूपं यो जानाति चरत्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रयमात्मैव स स्मृतः ॥ ८ ॥
भावार्थ - अपने ही शुद्ध आत्माका जो श्रद्धान, ज्ञान तथा चारित्र है वह सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप निव नोक्षमार्ग है । परद्रव्योंकी अपेक्षाले तत्वोंका श्रद्धान, आगमका ज्ञान, व्यवहार तेरह प्रकार चारित्र पालन तो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप व्यवहार मोक्षमार्ग है | आत्मा ज्ञाता है इसने वही ज्ञान, सम्यक्त व चारित्र रूप होता हुआ, मिथ्यात्व और कपायोंकी वायुसे चलायमान न होता हुआ, अपने आत्मामें ठहरा हुआ अपने स्वरूपको ही श्रद्धता है जानता है; च आचरता है इसलिये एक वह आत्मा ही दर्शन ज्ञान चारित्र तीन स्वरूप होकर भी एक रूप कहा गया है । इसका भाव यही है कि जव निर्विकल्प आत्मध्यान व स्वसंवेदन ज्ञान व आत्मानुभव होता है तब वहां निश्रय और व्यवहार दोनों ही मोक्षमार्ग गर्भित हैं। इससे तात्पर्य यह निकला कि हमको व्यवहार और निश्चय मोक्षमार्गके द्वारा अपने स्वरूपमें ही तन्मय