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श्रीप्रवचनसारटीका । है । ऐसा संयमी मुनि जब निन आत्मानुभवमें तल्लीन होकर ध्यानस्थ होता है तब विशेष संयमी हो जाता है, क्योंकि शुभोपयोगसे हटकर शुद्धोपयोगमें जम जाता है जो साक्षात् भाव मुनिपना है । भाव मुनिपना ही कर्मकी निर्जराका कारण है। मोक्षपाहुड़में स्वयं आचार्य कहते हैं
सव्वे कसायमुत्तं गारवमयरायदोसवामोह। ' लोयववहारविरदो अप्पा झापद भाणत्थो ॥ २७ ॥ मिच्छत्तं अण्णाणं पावं पुण्णं चएवि तिविहेण । माणन्वएण जोई जोयत्थो जोयए अप्पा ॥ २८ ॥
भावार्थ-सर्व क्रोधादि कषायोंको, गारव अर्थात् रस, ऋद्धि व साताका अहंकार, मद, राग, द्वेष, मोहको छोड़कर तथा लौकिक व्यवहारसे विरक्त होकर ध्यानमें ठहरकर आत्माको ध्याना चाहिये तथा मिथ्यात्व, अज्ञान, पुण्य व पाप कर्मको मन वचन कायसे छोड़कर योगीको ध्यानमें तिष्ठकर मौन सहित आत्माको अनुभवमें लाना चाहिये ॥ ६०॥
उत्थानिका-आगे आगमका ज्ञान, तत्वार्थ श्रद्धान, संयमपना इन तीनोंकी भेद रूपसे एक कालमें प्राप्ति तथा निर्विकल्प आत्मज्ञान इन दोनोंका संभवपना दिखलाते हैं अर्थात् इन सविकल्प और अविकल्प भावके धारीका खरूप बताते हैंपंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदियसंबुडो जिदकसाओ। दसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो॥ ६१ ॥
पंचसमितस्त्रिगुप्तः पंचेन्द्रियसंवृतो जितकषायः ।, . दर्शनज्ञानसमनः श्रमणः स संयतो भणितः ॥ ६१ ॥