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तृतीयः खण्डः।... [२२३ यह संयमः विशेष करके होता है। यहां अभ्यंतर परिणामोंकी शुद्धिको भाव. संयम तथा बाह्यमें त्यागको द्रव्यसंयम कहते हैं । ___ भावार्थ-इस गाथामें संयमके चार विशेषण बताए हैं-(१) साग अर्थात् जहां जो कुछ त्याग कर सकता है सो उसे छोड़ देना चाहिये । जन्मनेके पीछे जो कुछ वस्त्रादि परिमह ग्रहण की थी सो सब त्याग देना, भीतरसे औपाधिक भावोंको भी छोड़ देना, यहां तक कि शरीरसे भी ममता छोड़ देना सो त्याग है (२) अनारंभअर्थात् असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्या इन छ: प्रकारके साधनोंसे आजीविका नहीं करना तथा बुहारी, उखली, चक्की, पानी, रसोई आदि बनानेका आरम्भ नहीं करना, मन वचन कायको आत्माके आराधनमें व संयमके पालनमें लवलीन रखना, गृहस्थके योग्य कोई व्यापार नहीं करना । (३) विषय विरागता अर्थात् पांचौं इन्द्रियोंकी इच्छाओंको रोककर आत्मानंदकी भावनामें तृप्ति पानेका भाव रखना । संसार शरीर व भोंगोंसे उदासीनता भजना ।' (४) कषाय क्षय-क्रोध, मान, माया, लोभ व' हास्य, रति; अरति शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री वेद, पुंवेद, नपुंसकवेद इन सर्व अशुद्ध भावोंको बुद्धिपूर्वक त्याग देना, अबुद्धिपूर्वक यदि कभी उपज आवे तो अपनी निन्दा गर्दा करके प्रायश्चित्त लेकर भावोंमें वीतरागताको जमाते रहना । ये चार विशेषण जहां होते हैं वहां ही' मुनिका संयम होसक्ता है.। वहां नियमसे परिणामोंमें भी वैराग्य होता है तथा बाहरी क्रियामें भी-आहार विहार आदिमें भी-यत्नाचार पूर्वक वर्तन पाया जाता है। द्रव्य संयम और भाव संयम तथा इंद्रिय, संयम और प्राण संयम जहां हो वही मुनिका संयम