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तृतीय खण्ड |
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भावेण होइ जग्गा मिच्छचाई य दोस इऊणं । पच्छा दव्वेण मुणी पयडदि लिंगं जिणाणाए ॥ ७३ ॥ भावार्थ - जो पहले मिथ्यात्व अज्ञान आदि दोषोंको त्यागकर अपने भावोंमें नग्न होकर एक रूप शुद्ध आत्माका श्रद्धान ज्ञान आचरण करता है वही पीछे द्रव्यसे जिन आज्ञा प्रमाण बाहरी नन भेष मुनिका प्रगट करै, क्योंकि धर्मका खभाव भी यही है । जैसा वहीं कहा है----
अप्पा अप्पम्मि रओ रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो । संसारतरणहेदू धम्मोन्ति जिणेहि गिट्ठि ॥ ८५ ॥
भावार्थ - रागादि सकल दोपोंको छोड़कर आत्माका आत्मामें 'रत होना सो ही संसार समुद्रसे तारनेका कारण धर्म है ऐसा जिनेन्होंने कहा है ।
जोरत्नत्रय धर्मका सेवन करता है वही साधु होसता है ||१६||
उत्थानिका- आगे कहते हैं कि आगमका ज्ञान, तत्त्वार्थका श्रद्धान तथा संयमपना इन तीनोंका एक कालपना व एक साथपना नहीं होवे तो मोक्ष नहीं हो सक्ती है ।
हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि ण अस्थि अत्थेषु । सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि ॥ ५७ ॥
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न ह्यागमेन सिद्धयति श्रद्धानं यदि नास्त्यर्थेषु । श्रद्दधान अर्थानस यतो वा न निर्वाति ॥ ५७ ॥
अन्य सहित सामान्यार्थ - (जदि) यदि (अत्थेसु सद्दहणं न अत्थि) पदार्थोंमें श्रद्धान नहीं होवे तो ( नहि आगमेन सिद्ध्यति ) मात्र आगम़के ज्ञानसे सिद्ध नहीं होसक्ता है । ( अत्थे सद्दहमांणो )
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