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तृतीय खण्ड। [१८१ विशेषार्थ-प्रथम ही उत्सर्ग और अपवादका लक्षण कहते हैं। अपने शुद्ध आत्माके पाससे अन्य सर्व भीतरी व बाहरी परिग्रहका त्याग देना सो उत्सर्ग है इसीको निश्चयनयसे मुनि धर्म कहते हैं। इसीका नाम सर्व परित्याग है, परमोपेक्षा संयम है, वीतराग चारित्र है, शुद्धोपयोग है-इस सबका एक ही भाव है। इस निश्चय मार्गमें जो ठहरनेको समर्थ न हो वह शुद्ध आत्माकी । भावनाके सहकारी कुछ भी प्रासुक आहार, ज्ञानका उपकरण शास्त्रादिको ग्रहण कर लेता है यह अपवाद मार्ग है। इसीको व्यवहारनयसे मुनि धर्म कहते हैं । इसीका नाम एक देश परित्याग है, अपहृत संयम है, सरागचारित्र है, शुभोपयोग है, इन सबका एक ही अर्थ है। जहां शुद्धात्माकी भावनाके निमित्त सर्व त्याग स्वरूप उत्सर्ग मार्गके कठिन आचरणमें वर्तन करता हुआ साधु शुद्धात्मतत्वके साधकरूपसे जो मूल संयम है उसका तथा संयमके साधक मूल शरीरका जिस तरह नाश नहीं होवे उस तरह कुछ भी प्रासुक आहार आदिको ग्रहण कर लेता है सो अपवादकी अपेक्षा या सहायता सहित उत्सर्ग मार्ग कहा जाता है। और जब वह मुनि अपबाद रूप अपहृत संयमके मार्गमें वर्तता है तब भी शुद्धात्मतत्वका साधकरूपसे जो मूल संयम है उसका तथा मूल संयमके साधक मूल शरीरका जिस तरह विनाश न हो उस तरह उत्सर्गकी अपेक्षा सहित वर्तता है-अर्थात् इस तरह वर्तन करता है जिसतरह संयमका नाश न हो । यह उत्सर्गकी अपेक्षा सहित अपबाद मार्ग है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने दयापूर्वक बहुत ही स्पष्ट रूपसे मुनि मार्गपर चलनेकी विधि बताई है। निश्चय मार्ग तो