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१८०३ श्रीप्रवचनसारटीका। उसको साधुको समताभावसे संतोषसे लेना चाहिये । यदि कोई साधु कदाचित मूलसे व कोई कारणवश उस आहारको जो उसके हाथपर रखा गया है दूसरेको दे दे और वह भोजन दुवारा मुनिके हाथपर रक्खा जावे तो उसको मुनिको योग्य लेना नहीं है। यदि कदाचित ले लेवे तो वह प्रायश्चितका अधिकारी है। मुनिके हाथमें आया हुआ ग्रास यदि मुनिद्वारा किसीको दिया जावे तो वह मुनि उसी समयसे अंतराय पालते हैं। फिर उस दिन वे भोजनके अधिकारी नहीं होते हैं। इसका भाव जो समझमें आया सो लिखा है । विशेष ज्ञानी सुधार लेवें ॥ ४९॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि उत्सर्ग मार्ग निश्चयचारित्र है तथा अपवाद मार्ग व्यवहारचारित्र है। इन दोनोंमें किसी अपेक्षासे परस्पर सहकारीपना है ऐसा स्थापित करते हुए चारित्रकी रक्षा करनी चाहिये, ऐसा दिखाते हैं।।
बालो वा बुडो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा। चरियं चरउ सजोग मूलच्छेदं जपा ण इवदि ॥५०॥ बालो वा वृद्धो चा श्रमामिहतो वा पुनग्लानो वा। चर्या चरतु स्वयोग्यां मूलच्छेदो यथा न भवति ॥५०॥
अन्वय सहित सामान्यार्थः-(बालो वा) वालक मुनि हो अथवा (बुड्ढो वा) बुड्ढा हो या (समभिहदो) थक गया हो (वा पुनर्लानो वा) अथवा रोगी हो ऐसा मुनि (जधा) जिस तरह। (मूलच्छेद) मूल संयमका भंग (ण हवदि) न होवे (सजोमां) वैसे अपनी शक्तिके योग्य (चर्चा) आचारको (चरइ) पालो।