________________
१६j श्रीप्रवचनसारटोका !
श्री अमितिगति आचार्यने बड़े सामायिक पाठमें कहा हैसंघस्तस्य न साधनं न गुरवो नो लोकपूजापरा । नो योग्यैस्तृणकाष्ठशैलंधरणोपृष्ठे कृतः संस्तरः ॥ कात्मैव विबुद्धयंतामयमलस्तस्यात्मतत्त्वस्थिरो। जोनानो जलदुग्धयोरिव भिदां देहात्मनोः सर्वदा ॥३७॥
भावार्थ-न तो संघ साधुके लिये मुक्तिका साधन है, न गुरु कारण हैं न लोगोंसे पूजावाना कारण है न योग्य पुरुषों के द्वारा काठ, पाषाण या पृथ्वी तलपर किया हुआ संथारा साधन है। जो जल दूधके समान शरीर और आत्माको भिन्न २ जानता हुआ आत्मतत्वमें स्थिर होता है वही अकेला आत्मा मुक्तिका साधन करनेवाला होता है ऐसा जानो ॥ ४१॥
उत्थानिका-आगे योग्य आहार विहारको करते हुए तपोधनका स्वरूप कहते हैंइहलोग णिरावेक्खो अप्पडिबद्धो परिम्मि लोयमि। जुत्ताहारविहारो रहिदकसाओ हवे समणो ।। ४२॥ इह लोके निरापेक्ष अप्रतिवद्धः परस्मिन् लोके। . युक्ताहारविहारो रहितकषायो भवेत् श्रमणः ॥ ४२ ॥
अन्वयसहित सामान्यार्थ-(इहलोग णिरावेक्खो) जो इस लोककी इच्छासे रहित है, (परम्मि लोयम्मि अप्पडिवडो) परलोक सम्बन्धी अभिलाषासे रहित है, (रहिदकसाओ) व क्रोधादि कषायोंसे रहित है ऐसा (समणो) साधु (जुत्ताहारविहारो) योग्य आहारविहार करनेवाला होता है।
विशेषार्थ-जो साधु टांकीके उकेरेके समान अमिट ज्ञाता १. दृष्टा एक स्वभाव रूप निज आत्माके अनुभवके नाश करनेवाली