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तृतीय खण्ड ।.
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कारण नहीं होक्ता इसलिये पुण्यबंधके कारणोंका सहारा लेना अपवाद या जघन्य मार्ग है । वृत्तिकारने अपने मनमें परमात्माके स्वरूपका चितवन करना तथा निश्चय रत्नत्रयकी शुद्धिकी भावना जो मनसे की जाती है उनको भी उपकरण कहा है सो ठीक नहीं है क्योंकि : भावना व विचार विकल्प रूप हैं- साक्षात् वीतराग भावरूप नहीं हैं - इसलिये ये भी अपवाद मार्गके उपकरण हैं ।
तात्पर्य आचार्यका यह है कि इन सहायकोंको साक्षात् मुनिका भावलिंग न समझ लेना किन्तु अपवाद रूप उपकरण समझना जिससे ऐसा न हो कि उपकरणोंकी ही सेवामें मग्न होजावे ' और अपने निजपदको भूल जावे । मुनिपद वास्तवमें शुद्ध चैतन्य भाव है । वही उपादेय है । उसकी प्राप्तिके लिये इनका आलम्बन लेना हानिकर नहीं है, किन्तु नीचे पतनसे बचानेकों और ऊपर चढ़नेको सहायक है । निश्चयसे भावकी शुद्धता ही मोक्षका कारण है जैसा श्री कुंदकुंद महाराजने स्वयं भाव पाहुड में कहा है-'
भावेह भावसुद्ध अप्पा सुविसुद्धणिम्मलं चैव ।
लहु चउगइ चइऊंणं जइ इच्छसि सासयं सुखं ॥६०॥ जो जोवो. भावतो जोवसहावं सुभावसंजुत्तो । सो जरमरणविणास कुणइ फुडं लहह णित्र्वाणं ॥ ६१॥ भावार्थ - हे मुनिगण हो जो चार गति रूप. संसार से छूटकर शीघ्र शाश्वता सुख रूप मोक्ष चाहते हो तो भावोंकी शुद्धिके लिये अनन्त विशुद्ध अपने निर्मल आत्माको ध्याओ । जो जीव निज स्वभाव सहित होकर अपने ही आत्माके स्वभावकी भावना करता है सो जरा मरणका नाश करके शीघ्र निर्वाणको पाता है ।
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