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२५६ श्रीप्रवचनसारटोका। . विणि व पंच व सत्त व अजाओ अण्णमण्णरक्खाओ।
थेरोहिं सहतरिदा भिक्खाय समोदरंति सदा ॥ १६४ ॥ पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्मावगो य साधू य । परिहरिऊणनाओ गवासणेणेव वदति ॥ १५ ॥
भावार्थ-आर्जिकाओंका वेष विकार रहित व वस्त्र भी विकार रहित श्वेत होता है-वे लाल पीले रंगीन वस्त्र नहीं पहनती हैं एक सफेद सारी रखती हैं-शरीरमें पसीना व कहीं कुछ मैलपन हो तो उसको न धोकर श्रृंगार रहित शरीर घोरें। अपने धर्म, कुल, कीर्ति व दीक्षाके अनुकूल शुद्ध चारित्र पालें।. आनिकाएं दूसरे गृहस्थके घरमें व किसी साधुके स्थानमें विना प्रयोजन न जावें। मिक्षा व प्रतिक्रमण आदिके लिये अवश्य जाने योग्य कार्यमें अपनी गुरानीको पूछकर दूसरों के साथ मिलकर ही जावे-अकेली न जावें।
रोना, बालकोंको न्हलाना, भोजन पकाना व बालकोंको भोजन कराना, सीमना परोना, असि मसि कृषि वाणिज्य शिल्पविद्या आदिके आरंभ, साधुओंके चरण धोना, मलना, सग गाना आदि कार्य नहीं करें । तीन वा पांच वा सात आणिकाएं वृद्धा आर्यिकाओंको बीचमें देकर एक दूसरेकी रक्षा करती हुई भिक्षाके लिये सदा गमन करे। .
पांच, छः सात हाथ कमसे दूर रहकरके आर्यिकाएं आचार्य, उपाध्याय तथा साधुओंको गवासनसे वन्दना करें। जिस तरह गो बैठती है इस तरह बैठे ॥ ४० ॥
इस प्रकार स्त्री निर्वाण निराकरणक्के व्याख्यानकी मुख्यतासे ग्यारह गाथाओंके द्वारा तीसरा स्थल पूर्ण हुआ।