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तृतीय खण्ड। [१५१ 'हो कि यह कोई गंभीर महात्मा हैं व आत्माके ध्याता व शुद्ध भावोंके धारी हैं, उनका लोकमें कोई अपवाद न फैला हुआ हो ऐसे महापुरुष ही दीक्षा लेसक्के हैं । टीकाकारने यह भी दिखलाया है कि सतूशूद्र भी मुनि हो सक्ते हैं। यह बात पंडित आशाधरने . अनगार धर्मामृतमें भी कही है " अन्यैाह्मणक्षत्रियवैश्यसच्छूद्रैः स्वदातृगृहात " (चतुर्थ अ० व्याख्या श्लोक १६७) ।
इमका भाव यह है कि मुनियोंको दान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा सत्शूद्र अपने घरसे दे सके हैं। ___ इसका भाव यही झलकता है कि जब वे दान दे सके हैं तो वे दान लेने योग्यं मुनि भी होसक्ते हैं। - मूल गाथा व श्लोक नहीं प्राप्त हुआ तथा यह स्पष्ट नहीं हुआ कि सतशूद्र किसको कहते हैं। पाठकगण इसकी खोज करें। . उत्थानिका-आगे निश्चय नयका अभिप्राय कहते हैं
जो रयणत्तयणासो सो भंगो जिणवरेहि णिदिहो । सेसं भंगेण पुणो ण होदि सल्लेहणाअरिहो ॥ ४० ॥ • यो रत्नत्रयनाशः स भंगो जिनवरैः निर्दिष्टः । शेषमंगेन पुनः न भवति सल्लेखनाहः ॥ ४० ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ--(जो रयणत्तयणासो) जो रत्नन त्रयका नाश है (सो भंगो, जिणवरेहिं णिहिट्ठो) उसको मिनेन्द्रोंने व्रतभंग कहा है (पुणो सेसं भंगेण) तथा शरीरके भंग होनेपर पुरुष (सल्लेहणा अरिहो ण होदि ) साधुके समाधिमरणके योग्य नहीं होता है।
विशेपार्थ-विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभाव निन परमात्मतत्वका