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श्रीप्रवचनसारटोका 1
वर्णेषु त्रिषु एकः कल्याणागः तपःसहः वयसा । सुमुखः कुत्सारहितः लिंगग्रहणे भवति योग्यः ॥ ३६ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ - (तीसु वण्णेसु एक्को) तीन वर्णों से एक वर्णवाला (कल्लाणंगो) आरोग्य शरीर घारी, (तवोसहो) तपस्याको सहन करनेवाला, (वयसा सुमुहो) अवस्थासे सुंदर मुखवाला तथा (कुंछार हिदो ) अपवाद रहित ( लिंगमाहणे जोग्गो हवदि) पुरुष साधु भेषके लेने योग्य होता है ।
विशेषार्थ - जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीन वर्णोंमें एक कोई वर्णधारी हो, जिसका शरीर निरोग हो, जो तप करनेको समर्थ हो, अतिवृद्ध व अतिवाल न होकर योग्य वय सहित हो ऐसा जिसका मुखका भाग भंग दोष रहित निर्विकार हो तथा वह इस चातका बतलानेवाला हो कि इस साधुके भीतरं निर्विकार परम चैतन्य परिणति शुद्ध है तथा जिसका लोकमें दुराचारादिके कारणसे कोई अपवाद न हो ऐसा गुणधारी पुरुष ही निनदीक्षा ग्रहणके योग्य होता है - तथा यथायोग्य सत् शूद्र आदि भी मुनिदीक्षा ले सके हैं (" यथायोग्यं सच्छूद्राद्यपि " ( जयसेन ) ) |
भावार्थ - इस गाथा में स्त्री मोक्षके निराकरणके प्रकरणको कहते हुए आचार्य यह बताते हैं कि स्त्रियां तो मुनिलिंग धारण ही नहीं कर सक्ती हैं, किन्तु पुरुष भी जो मुनिभेष धारण करें उनका कुल ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य तीनोंमेंसे एक होना चाहिये तथा उसका शरीर स्वास्थ्ययुक्त हो, रोगी न हो, उपवास, ऊनोदर, . रसत्याग, कायक्लेश आदि तप करनेमें साहसी हो, अवस्था योग्य हो-न अति बाल हो, न अति वृद्ध हो, मुखके देखनेसे ही विदित