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तृतीय खण्ड ।
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वे दोष अधिकतासे होते हैं ? स्त्री पुरुषके अस्तित्व मात्र से ही
समानता नहीं है । पुरुषके यदि दोषरूपी विषकी एक कणिका' मात्र है तब स्त्रीके दोषरूपी विष सर्वथा मौजूद है। समानता नहीं है। इसके सिवाय पुरुषोंके पहला वज्रवृषभनाराचसंहनन भी होता है जिसके बलसे सर्व दोषों का नाश करनेवाला मुक्तिके योग्य विशेष संयम हो सक्ता है ।
भावार्थ - इस गाथा में पुरुष व स्त्रीके शरीर में यह विशेषता बताई है कि स्त्रियों योनि, नाभि, कांख व स्तनोंमें सूक्ष्मलब्ध्यपर्याप्त मनुष्य तथा अन्य जंतु उत्पन्न होते हैं सो बहुत अधिकता से होते हैं। पुरुषोंके भी सूक्ष्म जंतु मलीन स्थानोंमें होते हैं परन्तु स्त्रियोंकी अपेक्षा बहुत ही कम होते हैं। शरीर में मलीनता व घोर "हिंसा होनेके कारण स्त्रियां नग्न, निर्ग्रन्थ पद धारनेके योग्य नहीं हैं। ऊपरकी गाथाओं में जो दोष सत्र बताए हैं वे पुरुषोंमें भी कुछ अंश होते हैं परन्तु स्त्रियोंके पूर्ण रूपसे होते हैं । इस लिये उनके महाव्रत नहीं होते हैं ।
उत्थानिका- आगे और भी निषेध करते हैं कि स्त्रियोंके उसी भवसे मुक्ति में जानेयोग्य सर्व कर्मोकी निर्भरा नहीं हो सक्ती है । जदि दंसणेण सुद्धा मुत्तज्झयणेण चावि संजुत्ता । घोरं चरदि व चरियं इत्थिस्स ण णिज्जरा भणिदा ||३७|| यदि दर्शनेन शुद्धाः सूत्राध्ययनेन चापि संयुक्ता । घोरं चरति वा चारित्र स्त्रियः न निर्जरा भणितः ||३८|| अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( नदि दंसणेण सुद्धा ) यद्यपि कोई स्त्री सम्यग्दर्शन से शुद्ध हो (सुत्तज्झयणेण चाचि संजुत्ता) तथा
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