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श्रीप्रवचनसारटीका |
- कषायोंका तीव्र उदय ही उनको उस ध्यानके लिये अयोग्य रखता मोक्ष अनुपम आनन्दका कारण है ||३३||
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उत्थानिका - और भी उसी हीको दृढ़ करते हैं:विणा व िणारी एक्कं वा तेसु जीवलोयम्हि । ण हि संउडं च गतं तम्हा तासिं च संवरणं ॥ ३४ ॥
न विना वर्तते नारी एकं वा तेषु जीवलोके ।
न हि संवृतं च गात्र' तस्मात्तासां त्र संवरणं ॥ ३४ ॥ अन्य सहित सामान्यार्थ - ( जीवलोयम्हि ) इस जीवलोकमें (तेसु एक्कं विणा वा) इन दोषोंमेंसे एक भी दोषके विना ( णारी वहृदि ) स्त्री नहीं पाई जाती है (ण हि संउडं च गत्तं ) -न उनका शरीर ही संकोचरूप या दृढ़तारूप होता है ( तम्हां ) इसीलिये (तासि च संवरणं) उनको वस्त्रका आवरण उचित है ।
विशेषार्थ - इस जीवलोक में ऐसी कोई भी स्त्री नहीं है भिसके ऊपर कहे हुए निर्दोष परमात्म ध्यानके घात करनेवाले दोषों के मध्यमें एक भी दोष न पाया जाता हो। तथा निश्वयसे उनका शरीर भी संवत रूप नहीं है इसी हेतुसे उनके वस्त्रका आच्छादन किया जाता है ।
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भावार्थ - जिनके कषायकी तीव्रता परिणामों में होगो उनकी मन, वचन व कायकी चेष्ठा भी उन कषायोंके अनुकूल कषाय भावको प्रगट करनेवाली होगी, क्योंकि स्त्रियोंके चित्तमें मायाचारी मोह आदि दोष अवश्य होते हैं। आचार्य कहते हैं कि इस जगत में ऐसी एक भी स्त्री नहीं है जिनके यह दोष न हों, इसी ही कारणसे उनका शरीर निश्चल संवर रूप नहीं रहता हैं - शरीरकी