________________
तृतीय खण्ड।
[१४१, . अन्वय सहित सामान्यार्थ-(पमदाणं चित्त) स्त्रियोंके. चित्तमें (धुर्व) निश्चयसे (मोहपदोसा भयं दुर्गच्छाय) मोह, द्वेष,भय, ग्लानि तथा ( चित्ता माया) विचित्र माया (संति) होती है (तम्हा) इसलिये (तासिंण णिव्वाणं) उनके निर्वाण नहीं होता है।
विशेपार्थ-निश्चयसे स्त्रियोंके मनमें मोहादि रहित व अनन्तसुख आदि गुण स्वरूप मोक्षके कारणको रोकनेवाले मोह. द्वेष. भय, ग्लानिके परिणाम पाए जाते हैं तथा उनमें कुटिलता आदिसे रहित उल्लष्ट ज्ञानकी परिणतिकी विरोधी नाना प्रकारको माया होती है। इसी लिये ही उनको बाधारहित अनन्त सुख आदि अनन्त गुणोंका आधारभूत मोक्ष नहीं हो सक्ता है यह अभिप्राय है।
भावार्थ-स्त्रियोंके मनमें कषायकी तीव्रता रहा करती है। इसीसे उनके संज्वलन कषायका मात्र उदय न हो करके प्रत्याख्यानावरणका भी इतना उदय होता है कि जिससे जितनी कषायकी मंदता साधु होनेके लिये छठे व सातवें गुणास्थानमें कही है वह नहीं होती है । साधारण रीतिसे मुरुषोंकी अपेक्षा पुत्र पुत्री धनादिमें विशेष मोह स्त्रियोंके होता है, जिससे कुछ भी अपने विषय भोगमें अंतराय होता है उससे वैरभाव हो जाता है । पुरुषोंकी अपेक्षा स्त्रियोंको भय भी बहुत होता है जिससे बहुधा वे दोष छिपानेको असत्य कहा करती हैं तथा अदेखसका भाव या ग्लानि भी बहुत है जिससे वह अपने समान व अपनेसे बढ़कर दूसरी स्त्रीको सुखी नहीं देखना चाहती है। चाहकी दाह अधिक होनेसे व काम भोगकी अधिक तृष्णा होनेसे वह स्त्री अपने मनमें तेरह तरहकी कुटिलाइयां सोचती है । इन