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१३८ ] श्रीप्रवचनसारटोका !
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(समणिंददेसिदो धम्मो) श्रमगोंके इन्द्र जिनेन्द्रोंसे उपदेश किया हुआ धर्म (इह लोगं परं च) इस लोकको तथा परलोकको ( णहि पेच्छदि ) नहीं चाहता है। (तम्हि धम्मम्हि) उस धर्ममें (कम्हा) किस लिये (इत्थीण लिंगम् ) स्त्रियोंका वस्त्र सहित लिंग (वियप्पियं) भिन्न कहा है ! '.
विशेषार्थ-जैनधर्म वीतराग निन चैतन्ये भावकी नित्त्य प्राप्तिकी भावना विनाशक अपनी प्रसिद्धि, पूना व लाभं रूप इस लौकिक विषयको नहीं चाहता है और न अपने आत्माकी प्राप्तिरूप मोक्षको छोड़कर स्वर्गाके भोगोंकी प्राप्तिकी कामना करता है। ऐसे धर्ममें स्त्रियोंका वस्त्रसहित लिंग किस लिये निर्ग्रन्थ लिंगसे भिन्न कहा गया है। _ भावार्थ-इस गाथामें प्रश्नकर्ताका आशय यह है कि स्त्रीके भी लिंगको-जो वस्त्रसहित होता है-निग्रन्थ लिंग कहना चाहिये था तथा उसको तद्भव मोक्ष होनेका निषेध नहीं करना चाहिये था। ऐसा जो कहा गया है उसका क्या कारण है ? ॥ ३८ ॥
उत्थानिका-इसी प्रश्नका आगे सामाधान करते हैं । णिच्छयदो इस्थीण सिद्धी ण हि तेण जम्मणा दिडा । तम्हा तप्पडिरूवं क्यिाप्पियं लिंगमित्थीणं ॥ ३१॥ निश्चयतः स्रोणां सिद्धिः न हि तेन जन्मना दृष्टा । तस्मात् तत्प्रतिरूपं विकल्पितं लिंगं स्त्रोणां ॥ ३१ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(णिच्छयदो ) वास्तवमें (तेण • जम्मणा) उसी जन्मसे (इत्थीणं-सिद्धि) स्त्रियोंको मोक्ष (ण-हि.विट्ठा)