________________
तृतीय खण्ड 1
[ १३७
मोक्षका साधन हो वही साधु पदका भाव है। वह बिलकुल मम - 'तारहित आत्माका अभेद रत्नत्रयमें लीन होना है। इसलिये निरतर इसी भावकी भावना भानी चाहिये । जैसा देवसेन आचार्यने तत्त्वसारमें कहा है
-
जो खलु सुद्धो भावो सा अप्पा तं च दंसणं गाणं । चरणोपि तं च भणियं सा सुद्धा चेयणा अहवा ॥ ८ ॥ जं अवियप्पं तचं तं सारं मोक्खकारणं तं च ।
तं णाऊण विसुद्धं भायेह होऊण णिग्गंथो ॥ e ॥ भावार्थ - निश्चयसे जो कोई शुद्धभाव है वही आत्मा है, वही सम्यग्दर्शन है, वही सम्यग्ज्ञान है और उसीको ही सम्यम्चारित्र कहा है अथवा वही शुद्ध ज्ञानचेतना है । जो निर्विकल्प तत्त्व है वही सार हैं, वही मोक्षका कारण है । उसी शुद्ध तत्वको जानकर तथा निग्रंथ अर्थात् ममता रहित होकर उसीका ही ध्यान करो । इस तरह अपवाद व्याख्यान के रूपसे दूसरे स्थलमें तीन गाथाएं पूर्ण हुईं ॥२९॥
उत्थानका- आगे ग्यारह गाथाओं तक स्त्रीको उसी भवसे मोक्ष हो सक्ता है इसका निराकरण करते हुए व्याख्यान करते हैं। प्रथम ही श्वेताम्बर मतके अनुसार बुद्धि रखनेवाला, शिष्य पूर्वपक्ष करता है:
पेच्छदि हि इह लोगं परं च समणिददेसिदो धम्मो । धम्महि तम्हि कम्हा वियप्पियं लिंगमित्थीणं ॥ ३० ॥ प्रेक्षते न हि इह लोकं परं च श्रमर्णेद्रदेशितो धर्मो । धर्मे तस्मिन् कस्मात् विकल्पितं लिंगं स्त्रीणां ॥ ३० ॥