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१२४ ] श्रीप्रवचनसारटोका। जिसके भावोंमें कुछ भी ममत्त्व होगा वही शरीरकी ममता पोषनेको वस्त्रादि परिग्रह रखेगा । गमता सहित साधु शुद्धोपयोगी न होता हुआ कर्म बंध करेगा न कि कोका क्षय करेगा । जहां शुद्ध निर्ममत्त्व भाव है वहीं कर्मोका क्षय होसक्ता है। ____साधुपदमें वाहरी परिग्रह व ममता रखना बिलकुल वर्जिक है क्योंकि इस बाहरी परिग्रहकी इच्छासे अन्तरंगका अशुद्ध मैल नहीं कट सक्ता । जैसे चावलके भीतरका छिलका उसी समय दूर होगा जब उसके बाहर के तुषको निकालकर फेंक दिया जावे । बाहरकी परिग्रह रहते हुए अन्तरंग रागभावका त्याग नहीं हो सक्ता. इसलिये वाहरी परिग्रहका अवश्य त्याग कर देना चाहिये। इच्छा विना कौन वस्त्र ओढ़ेगा, पहनेगा, धोबेगा, सुखावेगा ऐसी इच्छा गृहस्थके होतो हो परन्तु साधु महाराज के लिये ऐसी इच्छा सर्वथा अनुचित है, क्योंकि शुद्धोपयोगमें रमनेवालेको सर्व परपदाअॅका त्याग इसीलिये करना उचित है कि भावोंमें वैराग्य, शांति और शुद्धात्मध्यानका विकाश हो।
श्री अमितिगति आचार्यने बृहत् सामायिकपाठमें कहा हैसद्रत्नत्रयपोषणाय वपुषस्त्याज्यस्य रक्षा परा, दत्तं येऽशनमात्रकं गतमलं धर्मार्थिमितिभिः । लज्जते परिगृह्य मुक्तिविषये वद्धस्पृहा निस्पृहास्ते गृहन्ति परिगृहं दमधराः किं संयमध्वंसक ॥१०॥
भावार्थ-जो साधु सम्यरत्नत्रयकी पुष्टिके लिये त्यागने योग्य शरीरकी रक्षा मात्र करते हैं, तथा नो नितेंद्रिय साधु परम.
वैरागी होते हुए केवल भक्तिकी ही भावनामें मग्न हैं और जो धर्मात्मा दातारोंसे दिये हुए शुद्ध भोजन मात्रको लेकर लज्जा