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तृतीय खण्ड।
[१२३. विशेपार्थ--यदि साधु सर्वथा ममता या इच्छा त्यागकर. सर्व परिग्रहका त्यात न करे किन्तु यह इच्छा रखे कि कुछ भी वस्त्र या पात्र आदि रख लेने चाहिये, तो अपेक्षा सहित परिणामोंके होनेवर उम साधुके चित्तकी शुद्धि नहीं हो सकी है। तब जिस साधुका चित्र शुद्धात्माकी भावना रूप शुद्धिसे रहित होगा उस साधुझे कोका अय होना किस तरह उचित होगा अर्थात् उसके कोका नाश नहीं होसक्ता है।।
इस कथनले यह भाव प्रगट किया गया है कि जैसे बाहरका तुप रहते हुए चावल के भीतरकी शुद्धि नहीं की जासक्ती । इसी तरह विद्यमान परिग्रह या अविद्यमान परिग्रहमें जो अभिल्लापा है उसके होते हुए निर्मल शुद्धात्माक अनुभवको करनेवाली चित्तकी शुद्धि नहीं की जासती है। जब विशेष वैराग्यके होनेपर सर्व परिग्रहका त्याग होगा तब भावोंकी शुद्धि अवश्य होगी ही, परन्तु यदि प्रसिद्धि, पूना या लाभके निमित्त त्याग किया जायगा तो भी चित्तकी शुद्धि नहीं होगी।
भावार्थ-जिसके शरीरसे पूर्ण ममता हट जायगी वही निग्रंथ लिंग धारण कर सक्ता है । इस निग्रंथ लिगमें यथानातरूपता है। जैसे बालक जन्मते समय शरीरके सिवाय कोई वस्त्र या आभू. षण नहीं रखता है वैन साधु नग्न होनाता है। वह शरीरके खुले रहते हुए शीत, रण, वर्षा, डांस, मच्छर, तृणस्पर्श आदि परीप्तहोंको सहता हुआ अपने आत्मवलमें और भी दृढ़ता प्राप्त करता है । जिसके ममत्त्व या इच्छा मिट जाती है वही मोक्षका. साधक. शुद्धात्मानुभव रूप शुद्ध वीतरागभाव प्राप्त कर सक्ता है।