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तृतीय खण्ड ।
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परिमुच्य करणगोचरमरीचिकामुज्झिताखिलारम्भः । त्याज्यं ग्रन्थमशेष' त्यक्त्वा परनिर्ममः स्वशमं भजेत् ॥ १०६ ॥ भावार्थ-साधुका कर्तव्य है कि यह इंद्रियसुखको मृगतृष्णाके समान जानके छोड़ दे व सर्व प्रकार आरम्भका त्याग करदे और सर्व धनधान्यादि परिग्रह को छोड़कर जिस शरीरको छोड़ नहीं सक्ता उसमें ममता रहित होकर आत्मीकसुखका भोग करे। वास्तमें शुद्धोपयोगी परिणतिके लिये परकी अभिलाषाका त्याग अत्यन्त आवश्यक है । तात्पर्य यह है कि निज भावोंकी भूमिकाको परम शुद्ध रखना ही बन्धके अभावका हेतु है ॥ २१ ॥
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इस तरह भाव हिंसा के व्याख्यानकी मुख्यतासे पांचवें स्थमें छः गाथाएं पूर्ण हुई । इस तरह पहले कहे हुए क्रमसे--"एवं पणमिय सिद्धे" इत्यादि २१ इकीश गाथाओंसे ९ स्थलोंके द्वारा उत्सर्गचारित्रका व्याख्याननामा प्रथम अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।
उत्थानिका - अब आगे चारित्रका देशकालकी अपेक्षासे अपहृत संयमरूप अपचादपना समझानेके लिये पाठके क्रमसे ३० तीस गाथाओंसे दूसरा अन्तराधिकार प्रारम्भ करते हैं। इसमें चार स्थल हैं ।
पहले स्थलमें निर्ग्रन्थ गोक्षमार्गकी स्थापनाकी मुख्यतासे " हि णिरचेवखो चाओ" इत्यादि गाथाएं पांच हैं । इनमेंसे तीन गाथाएं श्री अमृतचन्द्रकृत टीकामें नहीं हैं । फिर सर्व पापके त्यागरूप सामायिक नामके संयम के पालनेमें असमर्थ यतियोंके लिये संयम, शौच व ज्ञानका उपकरण होता है। उसके निमित्त अपवाद व्याख्यानकी मुख्यतासे “छेदो जेण ण विज्जदि" इत्यादि सूत्र