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श्रीप्रवचनसारटीका |
शुद्धोपयोग रूप अंतरंग संयमका घात परिग्रहरूप मूर्छा भावसे होता है इसलिये परिग्रह नियमसे बंधका कारण है । इसीलिये चक्रवर्ती व तीर्थंकरोंने सर्व गृहस्थ अवस्थाकी परिग्रहको त्यागकर ही मुनिपदको धारण किया । जिस बंधके छेदके लिये ध्यानरूपी खडग लेकर साधुपद धारण किया उस बन्धरूपी शत्रुके आगमन के कारण परिग्रहका त्याग अवश्य करना ही योग्य है ।
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वास्तव में परिग्रहरूप त्वभाव ही बंधका कारण है । वीतराग भाव होते हुए बाहरी किसी प्राणीकी हिंसा होते हुए भी भाव हिंसा के विना हिंसाका पाप बन्ध नहीं होगा । इसलिये आचार्यने हृढ़ता से यह बताया है कि सर्व परिग्रहका त्याग करना साधुके लिये प्रथम कर्तव्य है । पुरुषार्थ सिद्धयुपायमें कहा है :उभय परिग्रहवर्जनमाचार्याः सूचयत्यहिंसेति । द्विविधपरिग्रहवहन हिसोति जिनप्रवचनज्ञाः ॥ ११८ ॥ हिंसा पर्यायत्वात्सिद्धा हिसान्तरङ्गस गेषु । वहिरंगे तु नियतं प्रयातु मूच्चैव हिंसात्वम् ॥ ११६ ॥ भावार्थ- जिनवाणीके ज्ञाता आचार्योंने यह सूचित किया है कि अंतरङ्ग बहिरंग परिग्रहका त्याग अहिसा है तथा इन दोनों तरहकी परिग्रहका ढोना हिंसा है । अंतरंगके परिग्रहों में हिंसाकी ही पर्यायें हैं अर्थात् भाव हिंसाकी ही अवस्थाएं हैं तथा वाहरी परिग्रहों में नियमसे मूर्छा आती ही है सो ही हिंसापना है । मूर्छाका कारण होनेसे बाहरी परिग्रह भी त्यागने योग्य है । पं० आशोधरजी अनगारधर्मामृतमें कहते हैं