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१२८३ . श्रीप्रवचनसारटीका । (बंधो ध्रुवं ) वंध निश्चयसे होता ही है (इदि) इमी लिये (समणा) साधुओंने (सव्व) सर्व परिग्रहको (छंडिया) छोड़ दिया ।
विशेषार्थ-साधुओंने व महाश्रमण सर्वज्ञोंने पहले दीक्षाकालमें शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव मई अपने आत्माको ही परिग्रह मानके शेष सर्व बाह्य अभ्यंतर परिग्रहको छोड दिया। ऐसा जान कार, अन्य साधुओंको भी अपने परमात्मस्वभावको ही अपनी परिग्रह स्वीकार करके शेष सर्व ही परिग्रहको मन वचन काय
और कृत कारित अनुमोदनासे त्याग देना चाहिये । यहां यह कहा गया है कि शुद्ध चतन्यरूप निश्चय प्राणका घात जब राग द्वेवं आदि परिणामरूप निश्चयहिंसासे किया जाता है तब नियमसे वन्ध होता है । पर जीवके घात होजाने पर बंध हो वा न भी हो, नियम नहीं है, किन्तु परद्रव्यमें ममतारूप मूर्छा-परिग्रहसे तो नियमसे बंध होता ही है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने यह बात स्पष्ट खोल दी है किमात्र शरीरकी क्रिया होनेसे यदि किसी जंतुका वध होजावे तो वंध होय ही गा यह नियम नहीं है अर्थात् बाहरी प्राणियोंके घात होने मात्रसे कोई हिंसाके पापका भागी नहीं होता है। जिसके अप्रमाद भाव है, जीवरक्षाकी सावधानता है या शुद्ध वीतराग भाव है उसके बाहरी हिंसा शरीरद्वारा होनेपर भी कर्म बंध नहीं होगा। तथा जिस साधुके उपयोगमें रागादि प्रवेश हो जायंगे और वह जीव रक्षासे असावधान या प्रमादी हो जायगा तौ उसके अवश्य पापबंध होगा, क्योंकि बन्ध अन्तरङ्ग कषायके निमित्तसे होता है।