________________
wwwwwwwwwwww
तृतीय खण्ड। [ ११७ भावार्थ-जो साधु वस्तु ग्रहण करने, रखने, बैठने, 'खड़े . होने, चलने, शयन करने आदिमें सर्वत्र प्रमाद रहित सावधान है वह दयावान हिंसाका कर्ता नहीं होता है।
श्री मूलाचारके पंचाचार अधिकारमें कहते हैंसरवासेहिं पडतेहिं जह दिढकवचो ण सिजदि सरहिं । ' तह समिदीहि ण लिप्पइ साहू कापसु इरियंती ॥ १३१
भावार्थ-जैसे संग्राममें वह वीर जिसके पास दृढ़.लोहेका कवच है-सैकड़ों वाणोंकी मार खानेपर भी वाणोंसे नहीं मिदता है तैसे छः प्रकारके कार्योंसे भरे हुए लोकमें समितियोंको पालता हुआ साधु विहार करता हुआ पापोंसे नहीं लिप्त होता है । तात्पर्य यह है कि अन्तरङ्ग भंग ही भाव हिंमा है । इसके निरोधके लिये निरन्तर स्वात्मसमाधिमें उपयुक्त होना योग्य है ॥ २० ॥ ___ उत्थानिका-आगे आचार्य कहते हैं कि बाहरी जीवका घात होनेपर बन्ध होता है तथा नहीं भी होता है, किन्तु परियहके होते हुए तो नियमसे बन्ध होता है । हवदि व ण हवदि वन्धो मदे हि जीवेऽध कायचेहम्मि। बन्धो धुवयुवधीदो इदि समणा छडिया सव्वं ॥ २१ ॥ भवति वा न भवति बंधो मुतेहि जोवेऽथ कायचेष्टायाम् । वन्धो ध्रुवमुपधेरिवि श्रमणास्त्यक्तवन्तः सर्वम् ॥ २१
अन्वय सहित सामान्यार्थ-( कायचे?म्मि ) शरीरसे हलन चलन आदि क्रियाके होते हुए (जीवे मदे) किसी जंतुके मरजाने पर (हि) निश्चयसे (बंधो हवदि) कर्मबंध होता है (वाण हवदि) अथवा नहीं होता है (अध) परंतु (उवधीदो) परिग्रहके निमित्तसे