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तृतीय खण्ड ।
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जैन सिद्धांत में कर्मका बन्ध प्राकृतिक रूपसे होता है। क्रोध-मान माया लोभ कपाय हैं इनकी तीव्रतामें अशुभ उपयोग होता है। यही हिंसक गाव है । वश यह भाव पाप कर्मका बन्ध करनेवाला है ।
जब इस जीव रक्षा करनेका भाव होता है तब उसके पुण्य कर्मका बन्ध होता है तथा जब शुभ अशुभ विकल्प छोड़कर शुद्ध भाव होता है तब पूर्व कर्मकी निर्जरा होती है । कपाय विना स्थिति व अनुभाग बन्ध नहीं होता है इसलिये पाप पुvrataन्ध बाहरी पदार्थोंपर व क्रियापर अवलंबित नहीं है । यदि कोई यत्नाचार पूर्वक जीवदयासे कोई आरम्भ कर रहा है तव उसके परिणामोंमें जो रक्षा करनेका शुभ भाव है वह पुण्य कर्मको बन्ध करेगा | यद्यपि उस आरम्भमें कुछ जन्तुओंका वध भी हो I जावे तो भी उस दयावानके वध करनेके भाव न होनेसे हिंसा सम्वन्धी पापका वन्ध न होगा ।
यदि कोई किसी रोगी को रोग दूर करनेके लिये उसके मनके अनुकूल न चलकर उसको कष्ट दे करके भी उसकी भलाके प्रयत्न में लगा है, उसकी चीर फाड़ भी करता है तो भी वह वैद्य अपने भावों में रोगी अच्छा होनेका भाव रखते हुए पुण्य कम्मे तो बांधेगा परन्तु पाप नहीं बांधेगा । यद्यपि बाहरमें उस रोगी प्राणपीडन रूप हिंसा हुई तौ भी वह हिंसा नहीं है ।
यदि एक राजा अपने दयावान चाकरोंको हिंसा करनेकी आज्ञा देता है और चाकरगण अपनी निन्दा करते हुए हिंसा कर रहे हैं, परन्तु राजा मनमें हिंसाका संकल्प मात्र करता है तौ भी