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• तृतीय खण्ड। १०७ व्युत्थानावस्थायाम् रागादीनां वशप्रवृत्तायाम् । । नियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ॥ ४६ ॥ . यस्मात्सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चाजायेत न वा हिंसा प्राण्यंतराणां तु॥४७॥
भावार्थ-जब रागादिके वश प्रवृत्ति करनेमें प्रमाद अवस्था होगी तब कोई जीव मरो वा न मरो निश्चयसे हिंसा आगे २ दौड़ती है क्योंकि कषाय सहित होता हुआ यह आत्मा पहले अपने हीसे अपना धात कर देता है, पीछे अन्य प्राणियोंकी हिंसा हो अथवा न हो !! १७॥
उत्थानिकां-आगे इसी ही अर्थको दृष्टांत दाटतसे दृढ़ करते हैं।
उच्चालियम्हि पाए इरियासमिदस्स णिग्गमस्थाए । आबाज कुलिंग मरिन्ज तं जोगमासेज्ज ॥ १८ ॥ ण हि तस्स तणिमित्तो बंधों सुहमो य देसिदो समये । . मुच्छापरिग्गहोचिय अज्झप्पपमाणदो दिटो ॥ १९ ॥ उच्चालिते पादे ईर्यासमितस्य निर्गमस्थाने। . आवाध्येत कुलिंग म्रियतां वा तं योगमाश्रित्य ॥१८॥ नहि तस्य तन्निमित्तो बंधः सूक्ष्मोऽपि देशितः समये । मूपिरिग्रहश्चैव अध्यात्मप्रमाणतः द्रष्टः ॥१६॥ (युग्मम्)
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(इरियासमिदस्स ) ईर्या समितिसे चलनेवाले मुनिके (णिग्गमत्थाए ) किसी स्थानसे नाते हुए (उच्चालियम्हि पाए) अपने पगको उठाते हुए (तं जोगमासेज) उसे पगके संघट्टनके निमित्तसे ( कुलिंग ) कोई छोटा जंतु (आवाज) वाधाको पावे (मरिज) वा मर जावे (तस्स) उस साधुके (तण्णिमित्तो.