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१०६ ] श्रीप्रवचनसारटीका। मात्रसे बन्ध नहीं होता है । यहां यह भाव है कि अपने आत्मस्वभावरूप निश्चय प्राणको विनाश करनेवाली परिणति निश्चयहिंसा कही जाती है। रागादिके उत्पन्न करनेके लिये बाहरी निमित्तरूप जो परजीवका धात है सो व्यवहार हिंसा है, ऐसे दो प्रकार हिंसा जाननी चाहिये । किन्तु विशेष यह है कि बाहरी हिंसा हो वा न हो जब आत्मस्वभावरूप निश्चय प्राणका घात होगा तब निश्चय हिंसा नियमसे होगी इसलिये इन दोनोंमें निश्चय हिंसा ही मुख्य है।
भावार्थ-इस गाथामें भी आचार्यने मुख्यतासे अप्रमादभावकी पुष्टि की है तथा यह बताया है कि जो परिणामोंमें हिंसक है अर्थात् रागद्वेषादि आकुलित भावोंसे वर्तन कररहा है वह निश्चय. हिसाको कररहा है क्योंकि उसका अन्तरंग भाव हिंसक होगया । इमीको अन्तरंग हिंसा या अन्तरंग चारित्रछेद या भंग कहते हैं। इस भाव हिंसाके होते हुए अपने तथा दूसरेके द्रव्य यावाहरी शरीराश्रित प्राणोंका घात हो जाना सो बहिरंग हिंसा या छेद या भंग है। विना अंतरंग छेदके बहिरंग छेद हो नहीं सक्ता, क्योंकि जो साधु सावधानीसे ईर्यासमिति आदि पाल रहा है और बाह्य जन्तुओंकी रक्षामें सावधान है, परन्तु यदि कोई प्राणीका घात भी होजावे तौ भी वह हिंसक नहीं है । तथा यदि साधुमें सावधानीका भाव नहीं है और कषायभावसे वर्तन है तो चाहे कोई मरो वा न मरो वह साधु हिंसाका भागी होकर बंधको प्राप्त होगा, किन्तु प्रयत्नवान बन्धको प्राप्त न होगा।
श्री पुरुषार्थसिद्धयुपायमें कहा है: