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तृतीय खण्ड। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि प्रासुक आहार आदिमें भी जो ममत्व है वह मुनिपदके भंगका कारण है इसलिये आहारादिमें भी ममत्व न करना चाहियेभत्ते या खवणे वा आवसथे वा पुणो विहारे वा। उवधम्पि वा णिवलं गेच्छदि समणम्मि विकस्मि ॥१५॥ भक्त वा क्षपणे वा आवसथे वा पुनर्विहारे वा। उपधौ वा निवद्धं नेच्छति श्रमणे विकथायाम् ॥ १५ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ:-साधु ( भत्ते) भोजनमें (वा) अथवा (खवणे) उपवास करनेमें (वा आवसधे ) अथवा वस्तिकामें (वा विहारे) अथवा विहार करनेमें, (वा उवधम्मि ) अथवा शरीर मात्र परिग्रहमें (वा समणम्मि) अथवा मुनियोंमें (पुणो विकधम्मि) या विकथाओंमें (णिबई) ममतारूप सम्बन्धको (णेच्छदि ) नहीं चाहता है।
विशेपाथः साधु महाराज शुद्धात्माकी भावनाके सहकारी शरीरकी स्थितिके हेतुसे प्रासुक आहार लेते हैं सो भक्त हैं, इन्द्रियोंके अभिमानको विनाश करनेके प्रयोजनसे तथा निर्विकल्प समाधिमें प्राप्त होनेके लिये उपवास करते हैं सो क्षपण है, परमात्म तत्वकी प्राप्तिके लिये सहकारी कारण पर्वतकी गुफा आदि वसनेका स्थान सो आवसथ है | शुद्धात्माकी भावनाके सहकारी कारण आहार नीहार आदिक व्यवहारके लिये व देशान्तरके लिये विहार करना सो विहार है, शुद्धात्माकी भावनाके सहकारी कारण रूप शरीरको धारण करना व ज्ञानका उपकरण शास्त्र, शौचोपकरण कमंडल, दयाका उपकरण पिच्छिका इनमें ममताभावं सो उपधि है,